ब्रह्म निष्ठ गुरु
स्वामीजी की देशना का प्रारम्भ दो ही सूत्रो ंपर आधारित है। ब्रह्मनिष्ठ गुरु और आत्मत्कृपा। वर्तमान में रहना ए इस देशना के आधार पर जीने की विधि है।
स्वमीजी ने कभी अपने आपको गुरु के रूप में आरोपित नहीं किया ए पर यह शब्द कौंधता रहा ए क्या स्वामीजी पूर्ण सिद्ध ए ब्रह्मनिष्ठ गुरु ही थेघ् जो हम सब के बीव में आए एरहे ए चले गए।
इस सवाल का उत्तर उन दिनो स्वामीजी ने निर्वाण उपनिषद पढ़ने को कहा था। वहॉं ब्रह्मनिष्ठ गुरु की पहचान है। पर न जाने कयोंए सन्1972 में जब पहली बार स्वामीजी का थैला अपनी साइकिल पर टांग कर अपने धर लाया था ए तब से 2000 की सुबह तक जब वे अपनी महासमाधि में चले गए ए यह प्रश्न कभी अंतर्मन में उठा ही नहीं था। ब सवे हैं ए हर क्षण उनका सामीप्य है ए यही बोध बना रहा ए पर उनकी महा.समाधि के बाद जब अनेक मित्रोंने इस सवाल को उठाया तब कुछ उद्वेलन प्रारंभ हुआ। सच है ए वहॉं हजारों लोग आए ए पर उनके पास एक विश्वास ही था ए पर वे उन्हें जानते हैं ए यह अपना अनुभव नहीं था। वे औरों को भी मानते थे ए सब की देशनाओं का आदर था। जो मात्र एक शिक्षक मानते थे ए वे भी थेए पर यह प्रभु की कृपा ही थी ए कि उसकी ही असीम अनुकम्पा से जीवन के दूसरे चरण पर ही एब्रह्मनिष्ठ गुरु का सत्संग मिल गया।
यहॉं किसी की आलोचना नहीं ए पर अचानक ध्यान उस महान संत समाज की ओर चला गया ए जो रामजन्मभूमि के कार्यक्रम में देशभर से आमंत्रित थे। मन अचानक उन आज के महान संतों के मुखमंडल पर चला गया। पाया कुछ तो उस समय भी अपनी माला जप रहे थे।
गुरु ए जगद्गुरु ए वहॉं सभी थे ए पर क्या ब्रह्मनिष्ठ गुरु भी थे ए यह प्रश्न अचानक उठ गया ए इसी सवाल की खोज में यह यात्रा है.
शान्ति पाठरू
श्ऊँ वाबमें मनसि प्रतिष्ठताए मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् आविराः वीर्म एर्धि वेदस्य म आणीस्थः श्रुतम् मे माप्रहासीरनेन् आधीनेन अहोरात्रात् सन्दधामि।ऋतम् वदिष्यामि। सत्यम् वदिष्यामि।तन्मामवस्तु तद्वक्तारमवतु। अवतुमाम्। अवतु वक्तारमवतु वक्तारम्।
श्ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
अथ निर्वाणोपनिषदम् व्याख्यास्यामः
परमहन्सः सोऽहम्।
परिव्राजकाः पश्चिम लिंगाः।
मनमथक्षेत्रपालाः।
श्ऊँ मेरी वाणी मन में स्थिर होए मेरा मन मेरी वाणी में स्थिर हो। हे स्वयंप्रकाशि आत्मा् मुझमें प्रकाशित हो
हे वाणी और मन! तुम दोनों मेरे .ज्ञान के आधार होए इस लिए मेरे ज्ञान का नाश न करो। मैं इस ज्ञाान प्राप्ति में ही मैं रात.दिन व्यतीत करता हूँ।
मैं ऋत भाषण करूँगाए सत्य भाषण करूँगा। मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। मेरी रक्षा करोए वक्ता की रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो।
श्ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
अब निर्वाण उपनिषद का व्याख्यान करते हैं।
मैं परमहन्स हूँ।
;संन्यासी अन्तिम स्थिति रूप चिन्ह वाले होते हैंद्ध
सन्यासी
अंतर्मुखी होते हैं।
जहॉं कामभाव बीज में ही नाश हो जाता है।
निर्वाण उपनिषद
श्ऊँ वाब में मनसि प्रतिष्ठा मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम्श्
मेरी वाणी मन में स्थिर होए मन वाणी मे स्थिर हो।
निर्वाण का अर्थ होता है। किसी भी ज्योति का बुझ जानाए जहां बूंद का सागर में विलीन हो जाना कहा जाता हैए वहां सागर भी तो रहता हैए उसका अहसास बूंद को है या नहीं।
पर ज्योति का अंधकार में विलीन हो जानाए ज्योति कहां गई बस विलीन हो गई।
ण्ण् वह जहां से आती हैए वहीं चली जाती हैए जो जहां लीन होती है उसके उद्गम का स्थान होता है। एक सातत्यता है। निरंतरता है कर्हीं कुछ भी खोता नहीं है। बस मात्र परिवर्तन हो जाता है। द्वार एक ही हैए जो जहां से आता हैए वहीं चला जाता है।
ण्ण्ण् यहां बस रंगमंच हैए एक पर्दा हैए एक खेल हैए इससे अधिक कुछ भी नहीं है।
ण्ण्ण् इसी तरह बूंद का जो अस्तित्व हैए उसका जो ष्मैंष् पन हैए अहंकार हैए जब विदा ले लेता हैए खो जाता हैए जब उसका बाह्यमन खो जाता हैण्ण्ण्ण् अंतर्मन में लीन होजाता हैैए वह देह में ही रहता हैए पर कुछ खोकर के कुछ नया पा करके। जब वह विराट के अनुभव में रह जाता है वही अवस्था निर्वाण की है।
संत कबीर ने कहा हैए श्अपुन मरण का अंगश्।
स्वामी जी कहा करते थे. शास्त्र कहते हैंण्ण्ण् तब पात्र फूट जाता हैए संकेत मिलते हैं इक्कीस दिन से अधिक शरीर ठहर नहीं पाता।
पर जब प्रकृति ेके ही अधीन होजाता है एतब प्रकृति की इच्छानुसार उसके कार्य में भाग लेने के लिए रहना भी पड़ता है। पर वह स्वयं उसकी इच्छा से कुछ नहीं करताए बस होता है। वह मात्र रहता है। वह प्रकृति की इच्छा से रहता है।
केेनोपनिषद की कथा में गुरु शिष्य को यही संकेत दे रहा है। मन ब्रह्म से दूर हैए पर जिसका मन विलीन होगया है। वह होकर भी नहीं है।
्ð मात्र ध्वनि हैए इसका कोई विशेष अर्थ नहीं है।
यह सच्ची है। यह अंतर्यात्रा के द्वार पर उपजी ध्वनि है। मूल ध्वनि है। ण्ण्ण् यह हैए यह घर की पहचान कराती है। यह जहां से आ रही है वही अपना घर है। सबका घर है।
ण्ण् मेरी वाणी मेरे मन में स्थिर हो।
ण्ण्ण् क्या वाणी पर वास्तव में हमारा अधिकार है। हम कहना नहीं चाहते हैए पर शब्द हमारी जीभ पर आ जाते हैं। हम दिनभर न जाने कितना अनर्गन बोलते रहते हैं। चुप रहना मानो जानते ही नहीं हैं।
ण्ण्ण् कहीं भी आप जाते हैंए थोड़ा सा भी उत्तेजित होते हैं। वाणी आग उगलने लग जाती है। वाणी का आपके अहंकार से सीधा संबंध है।
हमारा मननए हमने देखा हैए उसकी अलग ही गति होती है।
ण्ण्ण् मन का अन्न का गहरा संबंध है।
तथा अन्न का और हमारी वाणी का गहरा संबंध है। आप सोचते कुछ और हैए बोलते कुछ और हैं। कहा जाता हैए कथनी कुछ और है करनी कुछ और हैए झूठ नहीं है। जो आप जानते हैंए सही नहीं है आप बोल रहे हैं। फिर आप भी नहीं जानतेण्ण्ण्ण् कि आप क्या बोल रहे हैंए सच है या झूठए आप नहीं जानते है।ए जो हम बोलते हैं वही हमारी पहचान हो जाती हैए। जो हम सोचते हैंए वह नहीं। मनुष्य वही हैए जो मनन करता हैए चिंतन करता हैए उसके पास मन है। पर हमारी पहचान हमारी वाणी से होती है।
ण्ण्ण् पहली प्रार्थना हैए मेरी वाणी मेरे मन स्थिर हो जाएण्ण्ण् ठहर जाए।
ण्ण्ण् जो बोला जा रहा हैण्ण्ण् वह विषय है। वाणी मेरी करण हैए यंत्र हैए मन उसका नियंता है।
यहां वाणी है। शब्द मेरी वाणी में ठहर जाएं। वाणी मन में ठहर जाएं।
ण्ण्ण् मौन में प्रवेश का द्वार है.
पर हमारी हालत हैए वाणी का मौन नहीं है। जीभ पर शब्द नहीं है पर भीतर भीतर शब्द चल रहे हैं।होठ तो नहीं हिल रहे हैंए पर भीतर शब्द चल रहे हैं।
वाणी भी जाकर मन में ठहर गई है।
ण्ण्ण्ण् पर इसमें बाद की प्रार्थना है.
मेरा मन मेरी वाणी में आकर ठहर जाए मन विचार शृंखला का ही नाम है। मन की पहचानए विचार से ही होती है। मन तो उर्जा हैए वह तो साइकिल हैए सवार विचार है विचार से हर साइकिल सवार की पहचान हो जाती है। इसका अर्थ हैए बहुत सीधा है।
मेरा मनए मेरी वाणी में ठहर जाए
जब बोलूंए मन से बोलूंए मेरी चिंतना और वाणी एक हो जाए। जब न बोलूं तो मन भी वहां न होण्ण्ण्जब वाणी की जरूरत हो बोलने की तो मन भी वहां पर हो। दोनों साथ होंए अन्यथा दोनो ही वहां न होण्ण्ण्
यही वास्तविक मौन है।
2
एक बहुत बड़े विद्वान स्वमीजी से मिलने आए थेए पर वे बैठे कुर्सी पर थे ए पर उनके पॉंव लगातार हिल रहे थे ए उनके जाने बाद स्वामीजी ने समझाया था ए जहॉं आप हैं ए आपका मन ए आपका शरीर ए इन्द्रियों सहितवहीं रहे।
पांव हैए तो चलें। पर बैठे हुए हों। और पांव हिल रहे होए तो कोई व्याधि ही है। हांए पांव में मन चला जाता हैए तो पावं बैठे.बैठे हिलते रहते हैं। बाकी समय मन कहां रहेघ्आपका शरीर जहॉं है ए वहॉं आपका मन नहीं है। आप मजबूरी में बैठे हैं।
ण्ण्ण् वाणी जब मन में रहने लग जाती हैए तब आप द्वैत से हटने लग जाते हैं। झूठ गिरना शुरू हो जाता है। जो हैए जहां हैए वहीं आप हैं। वहां से आप हटेए ण्ण्ण् वाणी भी हट गई। वाणी मन के अनुकूल ही रहे। जब वाणी मन में ठहरने लगती हैए तब बहुत सारा शोर समाप्त हो जाता है। उथल.पुथल कम होने लगती है।
जब वाणी मन में ठहरती है। तब वह सहज और सरल हो जाती है। उसमें लालित्य आता है। पहले जो व्यर्थ का बोला जाता हैए उसे काटना.छोड़ना पड़ता है।
ण्ण्ण् फिर मन ही वाणी में ठहर जाए.
जब बोलूं तो मन नहीं रहे। मेरे मन का तभी उपयोग होए जब बोलना हो। जब आप नहीं बोल रहे हैंए तो वहां मन की क्या जरूरत हैघ् हमारी परेशानी दूसरी है। हम चिंतक हैंए लेखक हैं । नहीं बोलेंगे तो लोग हमें मूर्ख समझेंगे।ए हर जगह सोचते रहते हैं। सपने में भी सोचते रहते हैं।
निर्देश है.
ण्ण्ण् जब तक जरूरत न होए बोलो ही मतएण्ण्ण् जब तब जरूरत न होए देखो मतए जब तक जरूरत न हो सुनो मत।
तबए यहां विषयए इन्द्रियों मेंए तथा इन्द्रियां मन में डूब जाती हैए यह साधना का पहला चरण है।
ष्यही सधना कठिन होता है. स्वामी जी कोे देखा है। जब बोलते थे धारा प्रवाहए मन वहां अचानक सक्रिय हो जाता थाए चुप हुए फिर गहरे मौन में चले जाते थे। यहां तक कि सामने कौन हैए उसका उन्हें पता नहीं लगता थाए जब वह बोलतेए शब्द कानों में टकरातेण्ण्ण्ए मन वहाँं सुनता तब उसकी प्रतीती होती थी। कहते थे. स्विच ऑफएऑनए ओटोमेटिक हो जाता है।श्
वाणी और मन का गहरा अटूट संबंध तभी जाना था। जब वाणी मन में और मन वाणी में आकर ठहर जाता है। तब जब बोलना ही नहीं होताए तब मन भी निष्क्रिय हो जाता है। वे कहा करते थे.श् यहंा मन को पत्थर बना देना नहीं हैए कि लहरंे आएं और टकरा.टकराकर लौट जाएंए मन अप्रभावित तो रहता हैए बाह्य से उदासीन रहता है। परन्तु जिस भी इन्द्रिय के साथ उसका संबंध जुड़ता हैए वह सक्रिय हो जाता है। संबंध टूटा फिर अपने मुकाम पर चला जाता है।श् मन नियंत्रित रहता है।
श्हांए पहलेए वाणी को मन में लाने का प्रयास होना चाहिए। यह अभ्यास है। अपने आपको बोलते हुए देखो। हम क्या बोल रहे हैंए देखें कितना व्यर्थ का हैए देखें। सतर्कताए अपने प्रति हमें उत्तरदायित्व सौंपती है। हम अपने प्रति सजग होते हैं। जहां मन नहीं है। ण्ण् वहां रूक जावें। अनर्गल बोलना कम होना चाहिए।
इसका पहला चरण हैए अपनी प्रशंसा तथा दूसरों की निंदा में रस छोड़ना चाहिए। वाणी को सबसे अधिक रस यहीं आता है। यही एकमात्र पथ्य हैए जो बीमारी की औषध के साथ दिया जाता है। वर्तमान में रहना औषध हैए पथ्य उसका वाणी पर निग्रह है। परनिंदा से बचोए वाणी स्वतः मन में रहने लग जाएगी। ण्ण् अन्न का सीधा संबंध मन से है। अन्न से जुड़ी भावनाए मन को भावनाए उसको विकार सौंपती है। अन्न का संचयए उसके भोजन के लिए पकाये जाने वाले का मनए तथा अन्न ग्रहण करते समय साधक का मनए उसके मन के स्वरूप को बनाते.बिगाड़ते हैं।
यहां सतर्क रहें। अन्न का बड़ा अर्थए वह सभी कुछ हैए जो शरीर इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण करता है। आंखों का आहारए कानों का आहारए सभी इन्द्रियों का आहार सही हो। हम कचरा पात्र नहीं हैए जो कुछ भी बाहर से अच्छा या बुरा आ रहा हैए उसे अपनी भीतर ले जाएं। ण्ण्ण् जो भी व्यर्थ का हैंए उसे भीतर नहीं ले जाएंए बाहर ही छोड़ते जाएं। यही सार है।श्
हम जूते पहनकर घर से बाहर जाते हेए पर जूते अपने बिस्तर पर नहीं ले जाते।
जब बाहर के व्यर्थ शब्द गिरने लग जाते हैं। तब हम स्वाभाविक मौन की तरफ बढ़ते हैं।
वाणी मन में ठहरने लगती है।
3
जब बोलंेए तो सावधानी रहेए मन वहीं रहे। उस दिन स्वामीजी के साथ ही चल रहा था। वे अचानक रुके उन्होंने धीरे से वूछा ए क्या सोच रहे होघ् मैंए अवाक था। घर आकर बाले ए जहॉं शरीर है ए वहीं मन रहे। जब सोचना हो तब सोचो एतुम धूमने गए थे ए या सोचने ए उन्होंने आपसे कुछ कहा आपने सुन लिया ए पर उस बात को साथ क्यों ले चल रहे होघ्मन की स्वाभाविक स्थितिए शांत है। तुम वहॉं गए ए बात हुई ए अनुभूति तो होगी ए पर प्रभावित होकर बहना नहीं।
जब पहला सधने लगता हैए तब दूसरा भी सधता हैए मन तब वाणी में ठहरने लगता है।
मन पर नियंत्रण तभी आता है ए जब बोलने पर लगाम लग जाती है।
मन विचार रूप है। जब बोलना ही न होए तब मन वहां नहीं रहे। भीतर का भी बोलना बंद हो। वह जो दिन भर जब भी चुप रहते हैंए अन्दर ही अन्दर सोचते हैंए सोचना हमेशा भाषा के माध्यम से होता है। हम भीतर ही भीतर बुदबुदाते रहते हैं। यह रूक जाए। मन अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहने लग जाता है।
अपने सोचने पर सजगता ही ध्यान है। यह कोई सिखाने की बात नहीं ए बस प्रयोग में उतरना है। बुद्धि से सभी समझ जाते हैं ए पर आचरण हृदय के सुनने पर ही आता है।
यही साधना का पहला चरण है।
हांए पर निन्दा से बचेंए आत्मप्रशंसा से बचेए इन्द्रियों के आहार के प्रति गहरी सतर्कता रहे।
तो क्या उपाय हैघ्
महत्वपूर्ण है ए अनावश्यक विचारणा रुक जाएए निष्ठा सौ टका होती है। सवाल मत पूछो ए प्रयोग में उतरो।अनंतयात्रा ए सायास ही लिखी है। जब तक मन अर्जुनदेव बना रहेगाए वहॉं शंका ही रहेगी। जब गुरु के प्रति नीलकंठ की मुमुक्षा जगेगी ए तभी ब्रह्मनिष्ठ गुरु कुंभ से मिलना होगा। शिखिध्व्ज को भी अपनी पत्नी में जब गुरु दर्शन हुआ ए उसे अपने अस्त्त्वि का बोध हुआ।
जब गुरु की पहचान हो जाए ए तुम्हारे सारे सवाल गिर जाएॅं ए तुम्हारा हृदय ए एक अबूझ प्यास से भर जाए एवही शिष्य की पहचान है।
कोई गुरु जो ब्रह्मनिष्ठ है ए वह प्रकृति को ही समर्पित होगया है। वह कभी नहीं कहेगा कि मैं मुरु हूॅं। जहॉं तुम्हारी अंतः करण की प्यास मिटने लगे ए समझ लेना सही जगह आगए ए तब भटकाव अपने आप बंद हो जाता है।
तब स्वामीजी ने निर्वाण उपनिषद पढ़ने को कहा था ए यह वही कृति है ए जो उस जमाने में रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानंद जी को पढ़ने को कहा था।
हम लोग स्वामीजी ही कहते रहे। उम्म्ेदसिंह झाला ए साबू जी गुरुजी कहते रहे। पर जब स्वामीजी की सौ वी जयन्ती पर हमारे गुरुदेव पुस्तक प्रकाशित हुई ए तब अंतःकरण में बस अनवरत अश्रुओं का भार ही था एयह हृदयानुभूति अपनी उसी मूढ़ता की सूचक है ए हम सुरसरि तट पर भी रहे ए पर प्यासे ही रहे।
साबूजी ने दीनदयाल जी की पुस्तक में बहुत सुंदर आलेख लिखा है ए वे गुरुकुल के विद्यार्थी थे ए वे स्वामीजी को गुरुजी ही कहते ोि ए मानते ोि ए उन्हें स्वामीजी ने पहली पुस्तक साणनयात्रा भेजी थी ए वह उनके शैल्फ में रखी रही ए बहुत बाद में अपने किसी अभिन्न मित्र के देहावसान पर जब बहुत देखी थे तब अचानक वह कृति तो पढ़ी ही ए अनतर्यात्रा भी पढ़ी ए तब सहसा बोध उन्मीलित हुआ ए उनके गुरुजी तो योगी थे ए यही ब्रह्मनिष्ठ गुरु की अपनी ही पहचान है ए वह अपने बारे में कभी कुछ नहीं कहता।
उपनिषद प्रारम्भ हो रहा है।
ऋषि कह रहे हैं ए वे परमहंस हैं। यह सुनना सभी को अटपटा लगता हैं। कहेंगे एयह तो अहंकार की अनुगूॅंज है। आप साथ चलें ए आप इन वचनो के सथ स्वामीजी को तलाश करें। जो वह है ए वह मैं हूॅं। आप स्वामीजी के सत्संग के वचनो को जहॉं कॉशियसनैस और अवेयरनैस का भेद बतलाते हैं ए आप मनन करें। आप अपने महान गुरु देव को अपने खोजी मन ए प्रेमाकुल हृदय में तलाश करें ए शायद तब अनंतयात्रा में प्रवेश संभव हो पाए।
यह ब्रह्मनिष्ठ गुरु की पहचान है।
ब्रह्मनिष्ठ गुरु कह रहे हैं.
परमहन्सः सोऽहम्।
परिव्राजकाः पश्चिम लिंगाः।
मनमथक्षेत्रपालाः।
यह उपनिषद घर वापसी के लिए है। आपने सिद्वांत बहुत पढ़ लिए अब शब्दों को सबद समझकर जीने का प्रयास करें। यह यात्रा आपकी मदद करेगी।
यहॉं अब लौटना होता है। बाहर बहुत भटक लिएए कब तक बाहर ही भटकते रहेंगे। यही माया हें जो हैए नहींए वही भासता हें यही मन की दौड़ हें कहीं पर भी विराम नहीं मिलता। वेदांत में साधना के तीन सोपान बताए गए है। ए श्रवण ए मनन ए निधिघ्यासन ए यह पहला चरण है श्रवण ही है ए अगर आपने सुन लिया ए अपनी बुद्धि को छोड़ते हुए हृदय में उतर गए तो मनन में प्रवेष अपने आप होताता है। श्रवण ही महत्वपूर्ण है। एक बीज में ही विराट बट वृक्ष की संीाावना छिपी रहती हें जरूरत एक ही है ए सही जगह पर बीज वपन हो जाए। जहॉं मात्र बुद्धि का ही अतिरेक है ए वह भूमि ªसर भूमि के समान है। वहॉं कुछ भी पैदा नहीं होता।
स्ूरदास जीने इस अवस्था विशेष का बहुत सुंदर वर्णन किया है ए गोपियॉं ए उद्धवजी से कहती हैंए.
ज्यों ªसर घेरे की मूरति को पूजे कोउ माने
ऐसी हम गोपाल बिन ªधो कठिन व्यथा को जाने ए कृष्ण ही तो वर जीवन्त रस है जहॉं हृदय है एवही श्रद्धा उपतजी है। तर्क ही गिर जाता है। अनयथा हम सारी जिन्दगी अपने तर्क को ही पुष्ट करने में लगे रहते हैं।
मेैं अपने जीवन मेंए गुरु की तलाश में ही था। एक सन्यासी के आश्रम में था वे दिगंबर थेए सब छोड़ आए थेए पर भीतर का संग्रह यथावत था। वे कह रहे थेए सुबह के अखबारों में प्रवचन चित्रों के साथ आए। बता रहे थेए अब तक कितने लाख के भवन निर्माण करा दिए हैं।
हािद्वार में थाए वहॉं विश्वगुरु अपना भव्य आश्रम दिखा रहे थे। एक दूसरे संत मिले ए बहुत बड़े गुरु हैंए उनका बहुत बड़ा आश्रम है। सैंकड़ों किताबे उनके नाम से है। पर सब दूसरों से ही लिखवाते रहे। बस नाम अपना दिला देतें। यह मोह की एआसक्ति की चरमावस्था हेै। पर जब जीवन में एक दिन आया ए कि मेरा अर्जुन देव मन ए अपने आप मूर्छित होगयाए जब पूज्य स्वामीजी से मिलना हुआ।
जाना एबिना नीलकंठ बने ए ब्रह्मनिष्ठ गुरु का सानिध्य असंभव है।
उनका सानिध्य ही उपनिषद है। चलें आज हम भी अपने गुरुदेव की खोज में चलते हैं।
निर्वाण उपनिषद के गुरु परमहंस हैंए वे गुरु के लक्षण बता रहे हेंए वे एक.एक कदम स्पष्ट करते जारहे हें।
यहॉं बाहर से भीतर आना है। हमें अपने घर ए अपनी देह की तरफए अपने मन की तरफए अपने हृदय की ओर फिर आत्म की तरफ लौटना है।
मन और वाणी दोनों मेरे ज्ञान के आधार हैं। न वाणी में दोष हैए न मन में। शरीर मेरा मित्र है।मन मेरा दुश्मन नहीं है। वाणी मेरी अहितकर नहीं है। पहली स्वीकारोक्ति यही अपने भीतर उठनी है। वाणी से मैं सबसे मिलता हूं। यह मुझे समाज में जोड़ती है। संसार से जोड़ती है। यह एक संवाद है। मन मेरी आंतरिक उर्जा है। जीवन्तता है। मेरा ज्ञानए मेरी वाणी तथा मेरे मन से अभिव्यक्ति पाता है।
ण्ण्ण् मुझे लौटना हैए मुझे अपने घर लौटना हैए जानता हूं जो बाहर की दुनिया में प्रवेश का द्वार थाए वही अपनी वापसी का द्वार होगा। क्या मुझे पता है ए मेरा जन्म क्यों हुआघ् न अपनी मृत्यु का पता है। पर जीवन जो मिला है ए मैं ही उसे मूल्यवान बना सकता हूॅं ए यह मेरे हाथ में है।
कमरे में जब आया थाए चेहरा सामने थाए दीवारें सामने थी। जब लौटना हैए तब दरवाजे की ओर मंुह होगाए तो पीठ दीवारों पर होगी। मुझे द्वार से ही लौटना हें द्वार कभी बंद नहीं होते। पर हम मूढतावश दीवारों से सिर टकराकर अपना जीवन ही समाप्त करते चले जाते हैं।
पीठ करके बैठनाए एक मुहावरा है। लौटने का यही रहस्य है। जिस संसार की ओर आकर्षण रहता है। और गहरे और गहरे वहां धंसते हुए चले जाना हैंए वहां दीवारेंए पीछे खिसती चली जाती है। कमरा बड़ा होता हुआ चला जाता है। एक कमरे का घर चौदह भुवन का घर हो जाता है।पर छूटना उसका भी है।
जानना यही है ए यही पहला सच है मौत सच है ए उसका आना तय है कब आएगी यह उसकी ही इच्छा है ए हमें जीवन मिला है ए जिन्दगी में जीने का तरीका ही सद गुरु सौंपते हे। ए बुद्ध ने कहा जीवन दुखमय है ए वे दुख से श्रम करके सुख की ओर चले ं स्वामीजी कहते थेएे ए जीवन सुखमय हो ए सुख ही देखो ए जगत वैसा ही नजर आएगा। जैसी दृष्टि वैसी ही सृष्टि ए गौस्वामी तुलसीदास कह गए .
हानि लाभ ए जीवन मरण ए यश अपयश विधि हाथ ए हमारे पास संसार में जीवन जीने के लिए प्रयत्न हैै। परमार्थ के लिए ए सुख ए शांति आनंद के लिए पुरुषार्थ है। पर वापसी तभी संभव होती हैए जब दीवारों की ओर पीठ हो जाएएण्ण्ण् तब दरवाजे की ओर चेहरा हो जाता है। कितना बड़ा भवन बन जाए ए पर बाहर निकलने का द्वार हमेशा खुला रहता है। यह हमारे ही हाथ में हैं ए हम शांति से व्यथाष् कथा की दौड़ से बाहर होजाएॅं एया धन ए सम्मान ए पद की दौड़ में अंत तक देौड़ते हुए गिर जाएॅं ए हमें कोई आकर ही हटादे। यहीवह वांछा है ए वह स्वार्थ है ए वह तृष्णा है ए जो जिन्दगी में सब कुछ अच्छा या बुरा करने के लिए प्रेरित करती रहती है। हम जिसे बेहतर बनाकर अपने मालिक को सौंपना चाहते हैं ए उसे भूलकर जो मिला है ए उसे और बदतर बनाए चले जाते है। स्वामीजी कहते थेे हमारा मूल स्वरूप् हम दाता हैंए पर हम इा जिन्दगी के धेाखे में अपनी गरज के लिए ए स्वार्थ के लिए अपने आपको अधम योनि की तरफ खंीच कर ले जाते हैं।
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मन ही भीतर लाया थाए वही बाहर ले जाता है।
कांटे से ही कांटा निकाला जाता है। मन ही बाधक हैए मन ही साधक है। अवलोकन . मन से ही होता है। मन ही दृष्टा हैए जो मन में उठने वाली विचार तरंगों को देख रहा है। मन ही दृश्य हैे। मन ही दर्शक है। सारी उमर दृश्य और दर्शक बनने मे चली जाती है। दृष्टा वही बन पाता है ए जहॉं तीर की नौक खुद की तरफ रहती हे। वहॉं दृश्य गिर जाते हैं। आप दर्शक नहीं रह पाते। जो देखता है ए उसे ही आप देख रहे हें भगवान बुद्ध ने कह था ए श्अप्पो दीपो भव ए आप अपने दिए बनने लगते हैं।
बरसाों के बाद जाना ए ेदेखना दूसरों को नहीं ए खुद को देखना हैं अवलोकन ही साधन है ए वर्तमान में रहना साध्य हैं। कल मैंने क्या किया ए ए अच्छा किया या बुरा ए बस देखना है। उस विचार के साथ बहना नहीं। तब जाना ए समृति ही पाप है। अवधारणा दुष्कर्म है। अनावश्यक विचारणा अभिशाप हैं । विषय ए इन्द्रियॉं ए मन जुड़ेंगे। अनुभूति होगी ए पर मन प्रभावित नहीं रहे। मन प्रभावित रहेगा ए चिन्तन से। बस यही अवलोकन का रहस्य है।
यही घरवापसी का रहस्य है। मन एक साथ दो कार्य कर सकता है। उसके आंतरिक भाग को दृष्टा बनाएं तो वह दूसरे भाग को सहज देखता है। देखना जब सतत व निरपेक्ष हो जाता हैं जब दृष्टाए दृश्य व दर्शन एक हो जाते हैं। मनए मन सेए मन को बाहर ले जाने में समर्थ हो जाता है। यही ध्यान है।ए आज्ञा है. ष्मन और वाणी तुम दोनों मेेरे ज्ञान के आधार हो।ष्
यहां मन ही सहायक है। मन जो पहले अतिक्रमण कर रहा थाए बर्हिमुखी थाए वह अब प्रतिक्रमण के पथ पर ले आता है।
प्रतिक्रमण ही अंतर्मुखता का रहस्य हैं। ब्रह्मनिष्ठ गुरु प्रवचन नहीं देते। उनका आचरण ए व्यवहार ही पुण्यपथ बन जाता हैं
कृपया पूज्य स्वामीजी के वचनों को याद रखें ए पहले मन बाहर से सिमिटता है ए फिर भीतर से सिमटने लगेगा ए जब बहुत देर तक आप किसी क्रिया के साथ रहें ए और मन वर्तमान में हे। बैताल पच्चीसी पच्चीसवीं कहानी की तरह बाहर कोई आलंबन नहीं रहा ए मन न भूत में है ए न भविष्य में ए वह वर्तमान की स्वाभाविक अवस्था में है। वह अंतर्मुखी होने लगता हेैए यही मन की अपने मूल स्थान नाभि की ओर खिसकने की प्रक्रिया का प्रारम्भ है। कृपया अनंतयात्रा को सावधानी के साथ पढ़ने का श्रम करें। पूज्य स्वामीजी का एक भी शब्द व्यर्थ नहीं हैं।
कभी आपने शांत मन से विचारा हैए बाहर जो घटना घटी थी एउसे उसी रूप में घटना ही थाए हमारे निरंतर चिन्तन से उसकी उस प्रक्रिया में सहायता नहीं हुर्इ्रं। हम कार्य निरंतर करते रहेंए और अवलोकन कर्ता भी बने रहें ए तब अनायास एक नई भूमिका में हम चले जाते है।यहॉए सब कुछ क्षणिक हैए सब परिवर्तन शील हैे। वह क्षण अनिवर्चनीय हैए वह क्षण अपनी समग्रता में जीया गया है। आज स्वामीजी के महानिर्वाण के वर्षों बाद भी उनके शब्द ए सबद बनकर समीप अनुभव होते हें आप उनकी अनुगॅंज को सुने।
आध्यात्मिक जगत में यही घर वापसी हैए जो मन बाहर ले जारहा थाए वह शांत हुआए निर्विचारता की झलक दिखीए वह घर लौट रहा है।।
घर वापसी हैए यह मन जब एकाग्र होता हैए सिमटता हैए तब वह बुद्धि में डूब जाता है। अहंकार बुद्धि का ही पुत्र हैं हम सिद्धांतों के मकड़जाल में फॅंस जाते हे। तर्क बुद्धि का हथियार है। हम तथाकथित ज्ञानी रह जाते हें जहॉं बाहर तो संपदा है। दिखाई जाती हें पर भीतर खोखलापन बढ़ताजाता है स्वामीजी ने यही समझाया था ए आत्मविश्वासी बनो ए याचक नहीं।
विचार ही विकार है। निर्विकारता में विश्रांति में ही बुद्धि शुद्ध होती हैं। जब बुद्धि शुद्ध होती जाती है। यहां कोई विकार नहीं होता। विचारों के कम होते ही ए अहंकार को टिकने के लिए कोई जगह नहीं दिखतीए तब वह विवेक में डूबता है। विवेक जहां हैए वहां मन भी हैए बुद्धि भी हैंए अहंकार भी हैए पर सब विवेक के नियंत्रण में होते हैं।यही साधना सार है।
यही मन के नियंत्रित होने की अवरूथा हैं ।
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मन्मथक्षेत्रपालाः
जो परमहंस होते हैंए उनके भीतर कामबीज स्वतः दग्ध हो जाता है। वे क्षत्रेपाल नही होते। जहॉं काम हो ए और उसको रोकने के के लिए द्वारपाल की जरूरत होए तो वहॉं मन यथावत मौजूद है। जहॉ। मन मौजूद है ए वहॉं संसार अपनी मनोकामना में उपस्थित है।
हमारे यहॉं जीवन के चार आधार बताए गए हैं ए धर्म ए अर्थ काम ए मोक्ष ए गहराई से विचारें ए बचपन से हमें जिस परिवार में पैदा होते है। ए वहॉं के आचार. विचार सौंपे जाते हें उन्हें ही हमाराघर्म कहा जाता हे। हम बुढ़ापे तक उसी परंपरा का पालन करते हे। पर बचपन से ही कामबीज पल्लवित होने लगता हें काम काअर्थव्यापक है ए जहॉं किसी प्रकार की कामना है वह उसी काम बीज का आधार ही हे। इस काम बीज के साथ ही अर्थ का जन्म होता हैं काम भीतर रिक्तता देता है ए उसकी पूर्ति अर्थ से ही होती है।
मोक्ष की आघार शिला हमारे ही यहॉं रखी गई। बंधनो से मुक्ति ए जिन बंधनो ने हमको जकड़ रखा है ए वे हमारे ही धारण किए गए बंधन है। इनसे छुटकारा ही जीवन्मुक्तता है। यही मोक्ष है। इसमें काम का ही अतिक्रमण चेतना कर जाती हे। अन्यथा संस्कार पुनः नए जन्म के साथ इसी यात्रा पर चल देता हे।
यह परमहंस का वक्तव्य हैं। स्वामीजी कहा करते थेए वे अपने जीवन में अंतिम समय तक बहुत कम स्त्रियों को ही चेहरे से ही पहचानते हैं। सामने कोई आया एजब वह दो तीन वाक्य बोलता हैए तब संबंध जुड़ जाता है। अन्यथा भीतर खालीपन है।जीवन में साक्षी भाव पाना ही जीवन का लक्ष्य है। यही जीवनमुक्तता है। यहीं शांति है ए आनंद है ए संतोष है।
जब कोई सामने आया ए कुछ कहना है तब मन और वाक दोनो जुड़ जाते हैं। वे कभी क्या कहना है ए यह सोचकर नहीं बोले ए पर जो बोला वह सत्य था। हजारों लोग गवाह हैं। उन्होंने अगर कुछ कह दिया तो वह होगया। अन्यथा लोग घंटों बैठे रहते थे ए वे चुप ही रहते थे।
कह रहे थे ए जब गुरुकुल चल रहा था एजब जरूरत होती जातेए पर जहॉं जाते ए वहॉं संकल्प पहले ही पहुंच जाता। जितनी आवश्यकता होती ए उतनी राशि अपने आप मिल जाती।
बस एक छोटा सा थैला ही उनकी बैंक रहा। पर एक भी पैसा उन्होंने अपने ऊपर खर्च नहीं किया।
काम भाव का बीज पूरी तरह वहॉं भुन गया था। उसकी अंकुरण क्षमता समाप्त होगई थी।
न वहॉं धन की दौड़ थी ए न सम्मान पाने की ए न यश की ए प्रकृति की महान संपदा मानो उनके लिए सुाक्षित थी।
उनके साथ ही रहकर समझा जासकता हैए। मेैंए परमहंस हूॅं ए मेै। वही हूॅंए श्परिव्राजका पश्चिमलिंगा।श् परिव्राजक सन्यासी ए अन्तिम स्थिति युक्त चिन्ह । कामदेव के लिए क्षेत्रपाल जैसे ए अर्थात कामदेव के वेग को रोकने में समर्थए
और उसके साथ ही एश्मन्मथक्षेत्रपालाःश्ए
ये दो वाक्य ही नहीं हैए यह उस परमहंस की अन्तिम स्थिति की सूचना हैए जो आज शास्त्र में उपलब्ध है। पर हम पहचान की दृष्टि से बहुत दूर चले गए हैं।
हम अपने गुरुदेव के समीप थे ए पर दृष्टि ही नहीं थी। दीनदयाल जीने अपनी स्तुति में पहली बार अवतरित शब्द का प्रयोग किया। गीता मानो उनका आचरण ही थी।
यह बुद्धि के स्तर पर ए भाषा के स्तर पर विवेचना के सूत्र नहीं हैं। हमने पूज्य स्वामीजी को देखा हैए सुना हैए उन्हें अपने हृदय में पहचानने का प्रयास करें।
गगन सिद्धातः अमृत कल्लोलनदी।
अक्षयं निर´जनम्।
निःसंशय ऋषिः।
निर्वाणो देवता।
निष्कुल प्रवृत्तिः।
निष्केवलज्ञानम्।
ऊर्ध्वाम्नायः।
निरालम्ब पीठः।
संयोगदीक्षा।
वियोगोपदेशः।
दीक्षा सन्तोषपावनम् च।
द्वादश आदित्यावलोकनम्।
उन का निष्कर्ष कथन आकाश के समान निर्लेपए अविभाज्य होता हैएवे व्यापक सिद्धांत वाले होते हैं।
उनके हृदय में अनंत की अविनाशी लहरों का संघात है
अक्षय और निर्लेप उन का स्वरूप होता है।
जो संशय शून्य हैए वह ऋषि है।
निर्वाण ही उन का इष्ट है।
वे सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त हैं।
वहाँ मात्र ज्ञान ही शेष है।
ऊर्ध्वगमन ही उन का पथ है।
वे अहर्निश स्वाश्रय में हैं।
वे निरन्तर ब्राह्मी भाव में हैं।
अनासक्ति ही उनका उपदेश है।
दीक्षा सन्तोष है और पावन भी।
उनका दर्शन ही बारह सूर्यो के दर्शन के समान है
यउनका प्रभा मंडल सूर्य की तरह सदा आलोकित रहता है
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निरा लंब पीठः
आज हम श्रीरामेश्वर धाम की चर्चा करते हैं। पर शायद उस स्थान के बारं में साबूजी ए उम्म्ेदसिंह जी बहुत कुछ सही कह सकते हैं। स्वामीजी सन बावन में मोलक्या आगए थे। मै तो सन बहत्तर में गया था। जब गुरुकुल सरकार को सौंप दिया गया था। पार्वती बहिनए सनोज की माताजी बहुत कुछ बता सकती है। दीनदयाल जी की पुस्तक स्वमीकथा में बहुत संक्षेप बहुत कुछ कहा गया है दीनदयालजी बकानी में तो जन्मे ए पढ़े पर जीवन के अंतिम समय में ही स्वामीजीके पास एक टेप लेकर अपने सवालों के साथ पहुंचेे।यही वह जीवन दृष्टि है जब संत चले जाते हैं ए तब उनके चरण चिन्हों को पूजा करने की परंपरा प्रारम्भ हो जाती हे।
जब वे साक्षात हमारे सामने रहते हैं ए हमारा ध्यान नहीं जाता। पुरानी कहावत हैे।भगौनी में रखी दाल का स्वाद कलछी नहीं जानती ए पर जीभ चख लेती है। संवेदनशील मन ही सद्गुरु के अमृत का पान कर पाता है। इमली के पेड़ के नीचे चटाइयॉं लगाकर तब गुरुकुल की स्थापना हुई थी।
उपनिषद कार ब्रह्मनिष्ठ गुरु की वर्णना में कह रहा है.
आश्रय रहित उनका आसन है।
वहां किसी प्रकार का आश्रय नहीं है। जिनके पास कोई साधन नहीं है। जिनके पास कुछ भी नहीं है।
पटेली जी ने स्वामी जी को जगह दिखाई थी। ऊबड़.खाबड़ पास में नाला बहता था। वहां इमली के पेड़ के नीचेए चार बाँस मंगवाकर उन्होंने अपनी झोंपड़ी तैयार की थी। वहां अपना गुरुकुल खोला था।
संकल्प यही था। मैं सेवा करूंगा। याचक नहीं बनूंगाए ण्ण् कठिनाइयां आईए पर वे नहीं डिगेए हिले नहींए यथावत अपने कार्य में लगे रहे।
न धन थाए ण्ण्ण् न पद थाए न वहां भाषा के जानकार लोग थे। उन्हें हिन्दी भी नहीं आती थी। वे मराठी थे। ण्ण्ण् न हीं कर्मकांड का बंधन थाए ण्ण्ण् न हीं कोई परम्परागत आश्रम था।
निरालंब पीठए शास्त्र का निर्देश है। जो परमात्मा को पाना चाहते हैंए उन्हें सारे आश्रय खो देने पड़ते हैं। असहायता बाहर होती है। भीतर आश्रय रहता है। वहीं आत्मकृपा होती है। प्रकृति अपने आप आवश्यकताओं की पूर्ति कराती चली जाती है। मैं यह कर लूंगाए ण्ण्ण् मुझे करना हैए यह भाव छूटता जाता है। यह कार्य होना हैए वही संभव होता है। यह कार्य होना हैए इमली के पेड़ के नीचे उस बांस की झोंपड़ी में स्वामी जी का यही संकल्प थाए ण्ण्ण् पूरा हुआए गुरुकुल बना। दूर.दूर तक के विद्यार्थी आए। फिर सब उन्होंने पूर्व के संकल्प की पूर्ति के बाद छोड़ दिया।
ण्ण्ण् निरालंब होनाए सहज नहींए ण्ण्ण् तिनके का ही सहारा लेना पड़ता है। यह सहारा बहुत माना जाता है। मन सदा सुरक्षा चाहता है। कोई तो सहारा हो। आज साधु.बिना मोबाइलए बिना कारए बिना पुलिसए बिना राजनेता के सहारे चार कदम आगे नहीं रखते। उन्हें भय लगा रहता है। जो स्वयं भयभीत हैए वह अभय कहां से देगाए स्वामी जी कहा करते थे। श्गृहस्थ इसीलिए भयभीत हैए उसके पास बहुत संग्रह है। उससे छूट जाने का भय है।यही मोह है। वह हमेशा सुरक्षा तलाश करता रहता है। अभ्यासी वही हैएवह यह जानता है कि कहीं सुरक्षित नहीं है। और वह यह भी जानता है कि वह सब जगह सुरक्षित है। जब जो होना हैएैए होना है। वह असुरक्षा में भी राजी है। उसका कोई आग्रह नहीं होता। वह प्रकृति के हर कार्य में सहयोगी है।श्
उनका आसन.निरालंब है। वहां कोई आलंबन नहीं हैए जब तक पराश्रय रहता हैए बाहर भटकाव रहता है। हमारा कोई हैए वहां पर टिकाव रहता हैए ण्ण्ण् पर जब दूसरा भी गिरता हैए तब निराश्रय आता हैए यह अंधेरी यात्रा होती है। इसे बर्दाश्त करना अत्यधिक कठिन होता है। जब इसमें भी ठहराव हो जाता हैए तब स्वाश्रय की प्राप्ति होती है। यहां दूसरा कोई है ही नहीं। यह अवस्था निरालंब की होती है। बाहर कोई आलंबन नहीं है। यहां कर्ता का भाव चला जाता है। जो हो रहा हैए वहां वह कर्म की तरह है। वर्तमान में किया गया कर्मए अपने आप में अनासक्त होता जाता है। कर्म से बचना नहीं है। परन्तु अपनी इच्छा भी नहीं है। तब प्रकृति अपने आप सारे साधन जुटा लेती है।
सोचें ए विचारें ए क्या हमने अपने गुरुदेव के सानिध्य में अभय अनुभव नहीं किया थाघ् जहॉं हजारों को आश्रय मिलता था ए उनके पास अपना ही स्वामित्व था। और हमने क्या पायाघ्
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संयोग दीक्षा
यह शास्त्र का वचन है। यह सिद्धों की पहचान के लक्षण है। वहां कुछ भी नहीं था। मात्र एक कुटियाए ण्ण्ण् पर जब भी दस व्यक्ति आएए बीस आएए हजार भी आए उनके लिए पूरी व्यवस्था होती गई। जो भी आयाए उसेे यथावत आतिथ्य मिला। इधर लोग पहुंचे हैं। थोड़ी देर में हीए आहार की व्यवस्था के लिए कोई पहुंच गया है। उप शिक्षा निदेशक बता रहे थेए हम रात को पहुंचे। वहां स्वामी जी अकेले थे। हम दो.तीन लोग थे। उन्होंने पूछा कैसे आएए फिर पूछा. भोजन लियाघ् हम चुप रह गए। वहां रात को भोजन की क्या व्यवस्था होगीघ् झूठ बोल गए। बोले खाना खाकर आए हैं।
स्वामी जी हंसेए थोड़ी देर बाद अंधेरे में एक आदमी आता दिखाई दिया। ष्स्वामी जी ने पूछा. दूध तो लेंगे। हमने कहाए हां ले लेंगेए भूखे थेए झूठ बोल गए थे। पर अब दूसरा रास्ता भी नहीं था। स्वामी जी ने आते ही उसे हम लोगों के लिए प्रचुर मात्रा में गर्म व मीठा दूध लाने को कहा। हम सोच रहे थेए इस जगह पर जो गांव से थोड़ी दूर हैए आसपास कहीं कोई व्यवस्था नहीं है। यह कहां से लाएगाए पर थोड़ी देर बाद वही आदमी दूध भी ले आया। हमने पियाए सो गए। सुबह स्वामी जी ने पूछा. ष्जब भूखे थेए तब खाने के लिए क्यों मना किया थाघ्ष्
ष्संयोग दीक्षाष् जो ब्रह्मनिष्ठ हैए वहां मात्र शब्दों की ही व्याख्या में ब्रह्म ज्ञान नहीं होता। उनका आचरण व भाषाए स्वयंए स्पष्ट व्याख्या कर देती हैए वे निरंतर ब्रह्मभाव में ही रहते हैं। वियोग वहां नहीं होता है। वे दीक्षित है। उनकी दीक्षाए अपने आप से निरंतर संयोग में होती है। ण्ण्ण् वे आत्मरूप में निरन्तर स्थित रहते हैं।
मित्र का सवाल था ए तब स्वामीजी ने कहाथा ए यहॉं इुकान खाली होगई है ए तब इसका क्या आशय था ए यह क्यों कहा थाघ्
जाना ए जो ब्रह्मनिष्ठ हैं ए वहॉं भीतर का कोलाहल पूरा ही विसर्जित हो जाता है। न कोई चाह बची है ए न चिन्ता हें । यही स्वाश्रय है। नाममात्र को अहंकार नहीं बचता। हम प्रार्थना करते हैं ए तेरा तुझकोसौंपत क्या लागे मेराए पर अपने आपको बचाए रखते हेैं।
कहावत है.
चाह गई चिन्ता गई मनुआ बेपरवाह
जिसको कछु नहीं चाहिए वही शहन्शाह।
वहॉ। मात्र करुणा ही रह जाती है। दुकान में संसार है। बाहर की यात्रा है। पर जो निरंतर ब्राह्मी अवस्था में है ए यह उस अवस्था का संकेत ही हेै।
हम अपना अध्ययन करें ए अपने आपको देखें ए हमारे कर्म के प्रति ए बाहर के भटकाव के प्रति कौन सी कामना हें क्या आवश्यकता हैघ् हर प्राणी की स्वाभाविक आवश्यकता की पूर्ति प्रकृति अपने आप कर देती हेै पर हम वैभव आकांक्षी हैं।हमारी अपेक्षा ए स्वार्थ मयी हैए जिसे सूफी परंपरा में गरज कहा जाता है। हम उस स्वार्थमयी अपेक्षा में अच्छा. बुरा सब करने को तत्पर रहते हेै।
पर यही गरज कालांतर में जीवन को विषाक्त ही कर जाती है। गरज और गरब पास. पास के शब्द है। हम गरब को बनाए रखने के लिए ही गरज को स्वीकारते रहते हेैंं।
यहॉं अपेक्षा दूसरे से जो है ए वह स्वार्थ प्रेरित है। अपने आत्मसम्मान का गला घोंटकर रहती है।
ण्ण्ण् वहां अब कहीं जाना नहीं हैए स्वामी जी कहा करते थेए यहां स्थितप्रज्ञ होकरए प्रकृति के कार्य में निरन्तर अपनी शक्ति के अनुसार सहयोग करना होता है। ण्ण्ण् कहीं हिमालय पर जाना नहीं है। यही अविद्या तथा विद्या का समुच्चय है। संसार से पलायन नहीं है। संसार में चिपकाव भी नहीं है। ण्ण्ण् वह निरन्तर उसमेंए उसके साथ हैए जो ष्तत्ष् हैंए वह भी वहीं हैए यह अहसास निरन्तरए बना रहता है।
ष्वियोग उपदेश.ए जो हम नहीं हैए उससे वियोगए यही उनका उपदेश रहता है।
यह जो संसार हैएजो हमने ही बनाया हैए हमारा ही प्रक्षेपण है। यह जो जगत हैए इससे वियोग रखना है। जो हम हैंए हमारा आत्म है। उसके साथ जुड़े रहना है। जुड़े तो हम पहले से हैंए अस्तित्व से हटकर कोई रह नहीं सकताए परन्तु उसका अहसास नहीं होता है।
हम सब अपनी.अपनी दुनिया बनाते हैं। अपने विचारों की। यह अच्छा हैए यह बुरा है। यह अपना हैए यह पराया है। अपनी दुनिया है। इसे शास्त्र मनोराज्य कहता है। हम इसमें विचरण करते हैं। इससे वियोग होना हीए उपदेश है।
हम इस शरीर को ए इस भौतिक संपदा को अपना मानते हैं। धन ए यश ए पद की होड़ में अच्छा. बुरा सभी कुछ करते रहते हे। पर यह संयोगभी अस्थिर है।
यह सही है ए सत्य है ए मृत्यु ही सब छुड़ा जाती हैे। कुछ साथ नहीं जाता। दूसरा सत्य यह जिन्दगी है ए हम कैसे जीएॅं यही हमारी स्वाधीनता हे। हम चाहे नरक में ले जाएॅं या स्वर्ग में यही हमारी स्वतंत्रता हे। और तीसरा सत्य जो हमारे जीवन को दुख ए संताप ए वेदना और कलुष सौंप जाता है ए वह हमारे स्वार्थमयी अपेक्षा ही है। वही गरज है ए हम जीवन भर इसी के लिए प्रकृति के विरोध में रहते हैं।
यही अवास्तविक है। वास्तविक हमारा निरंतर वियोग हैए जो हमारा हैए जो हमारा नहीं हैए हमारा ही प्रक्षेपण हैए हमारी बनायी दुनिया है उसका हमसे छूटते जाना ही सार है। सरल वाक्य है ए वर्तमान में रहो ए अंतर्मुखी बनो ए पर यही संसार में रहते हुए वास्तविक सन्यासी की भूमिका है।
दीक्षा संतोष है.
स्वामी जी कहा करते थेए आध्यात्मिक साधना नहीं होती।यहॉं करना कुछ भी नहीं ए वर्तमान में रहने की कोई विधि नहीं। यह तो बस रहना है।
यहां मात्र रहा जाता है। सहजता होती है। साधन में कुछ करना पड़ता है। इसकी उपलब्धि मात्र संतोष है।ए शास्त्र भी कहता है. दीक्षा संतोष हैए और पावन भी। ण्ण्ण् दीक्षाए दीक्षित होनाए उसके अनुरूप हो जानाए उसमें ढल जाना। यहां पूरा समर्पण अस्तित्व के प्रति हैए ण्ण्ण् स्वामी जी के शब्दों मेंए प्रकृति के प्रति है। जैसे शिशु माँं की गोद में तृप्ति अनुभव करता हैए वहीं स्वामी जी भी निरन्तर प्रकृति के साहचर्य में पाते थे। उनकी हर सांसए प्रकृति को समर्पित थी। वे कहा करते थेए अंतः प्रेरणा कहती हैए तब बोला जाता है अन्यथा चुप। यहां तक कि पानी के लिए पूछने परए पानी का गिलास सामने आने के बाद भीए हाथ में पानी का गिलास देना पड़ता थाए पानी हैए कहा जाता था। संबंध इतना बाहर से टूटा हुआ था।
ष्संयोग दीक्षा.वियोग उपदेशए दीक्षा संतोष पावनमण्ण्ण्ण् वहां मात्र एक गहरा संतोष था। कहीं किसी प्रकार की कोई बंदिश नहीं थीं तथा होने न होने परए किसी प्रकार की कोई उत्तेजना नहीं थी। ण्ण्ण्ण् जो भी घटता हैए वह हमारे लिए जितना प्रासंगिक होता जाता है उतना ही हमारे भीतर असंतोष भी पैदा करता जाता है। बाहर का बहुमूल्य होना हमें दीनता सौंपता हैए हमें असंतोष देता है। बाहर जितना अर्थहीन होता जाता हैए उतना ही हमारे भीतर अर्थवान पैदा हो जाता है।
वही मूल्यवान हमारा संतोष होता है। हम अपने ही भीतर मूल्यवान बनते जाते हैं। यह संतोष पावन भी होता है। फिर इसके अपवित्र होने की संभावना नहीं होती। ष्ष्ज्यो की त्यों घर दीनी चदरियाएण्ण्ण्ष्ष् यह आत्मबोध रहता है। उसके अब प्रदूषित होने की संभावना नहीं रहती। स्वभाव ही पवित्र है। वहां किसी प्रकार का विकार नहीं है।
ण् वे ही महान गुरु होते हैंए वे ब्रह्मनिष्ठ होते हैंए ब्रह्म में जिनकी निष्ठा हैए पर वे साथ ही श्रोत्रिय भी होते हैं। श्रोत्रिय जो प्राप्त ज्ञान को दूसरे में संचयित करने में समर्थ होते हैं। प्राप्त ज्ञान भीतर अनंत मूल्यों का उद्घाटित अनुभवन है। वहां अज्ञान का अंधकार कभी का विलीन हो चुका है। उनकी चित दशाए निरंतर अनुभवन में डूबी रहती है। ण्ण्ण् वे उस शांति ज्योतित सागर में निरंतर स्नान करते हैं। वे ही सद्गुरु हैं।
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विवेक रक्षा।
करुणैव केलिः।
आनन्द माला।
एकासन गहायाम् मुक्तासन सुख गोष्ठी।
अकल्पित भिक्षाशी।
हन्साचारः।
सर्वभूतान्तर्वर्तीम् हन्स इति प्रतिपादनम्।
विवेक ही उन की रक्षा है।
करुणा ही उन की क्रीड़ाए खेल है।
आनन्द उन की माला है।
गुह्य एकान्त ही उन का आसन है और मुक्त आनन्द ही उन की गोष्ठी है।
अपने लिए नहीं बनाई गई भिक्षा उन का भोजन है।
हंस जैसा उन का आचरण होता है।
सर्व प्राणियों के भीतर रहने वाला एक आत्मा ही हंस है. इसी को वे प्रतिपादित करते हैं।
ष्आत्मवत सर्वभूतेषु ए सर्वभूतेषं हिते रतःष् यहीवह संदेश है जिसे
वे अपने शिष्यों के बीच प्रतिपादित करते हैं।
जो सद्गुरु हैंए वे विवेकी हैं। वे बुद्धिमत्ता केे पार हैं।
उनके पास न भय हैए न प्रलोभन हैए न मीठी लुभावनी बाते हैंए न गंडे व ताबीज हैए न कोई विधिए न शिष्य मंडलीए वहां कुछ भी तो नहीं होता। मात्र आठ फीट की कोठरी मेंए एक तख्त और एक थैलाए यही तो वहां सामान था। न किसी को स्वर्ग का प्रलोभनए न किसी कामना पूर्ति का यज्ञए न वहां कोई पूजा थीए न भक्ति का आंदोलनए ण्ण्ण् सबसे परे स्वामी जी का अपना निरालंब आसन था।
उनका दंड भी दूसरे कमरे के एक कोने में रखा हुआ था। जिसे वर्षों पहले उन्होंने त्याग दिया था। एक माला पहनते थे। छोटी रूद्राक्ष की। जो भी बरसों पहले किसी को दे दी थी। वहां कुछ भी नहीं पड़ा था मात्र ष्विवेकष् जो शक्ति थी। एक सजगता।
न वहां अतीत थाए न भविष्य का कोई आयोजन । मात्र वर्तमानए जो भी सामने सड़क से कुटिया की ओर आता हुआ दिखता थाए वही महत्वपूर्ण था। वे बाहर बरामदे में आकर शांत कुर्सी पर बैठेे रहते थे। वह कौन हैए वह महत्वपूर्ण नहीं था। वह हैए न वहां अतीत थाए कौनए नाम पूछा वह आया बैठ गया। वह अपनी बातें कह रहा हैए वे शांत भाव से सब सुनते रहेए उसने कोई सवाल पूछाए भीतर से प्रेरणा हुयी तो बोलेए अन्यथा सुनते रहे। वही कहता पानी लाऊंए वहां कोई विशेष प्रबन्ध नहीं था। न हीं कोई विशेष सेवक। सभी वहां सेवक थे। सभी का वह घर था। स्वेच्छा से काम करते। सामान ले आते। एक अनियमबद्ध तरीके से नियमितकार्य होता था।
वहां कोई दोहराव नहीं था। सभी कुछ अपने आपमें नया था। चाय वही बनाएगाए यह तय नहीं था कौन सा प्याला किसका हैए तय नहीं। याद हैए एक बार एक सेवक ने उस व्यक्ति के लिए जो दलित था एक दूसरा प्रकार का प्याला लाकर ट्रे में रखा। स्वामी जी ने वह प्याला खुद उठा लिया। बाद में फिकवा दिया। कहाए यहां सब एक है। ण्ण्ण् कोई अलग नहीं है। सबको एक ही अधिकार है।
ष्विवेक ही उसकी रक्षा है। सूत्र व्याख्या के लिए नहीं है। व्याख्या बहुतों ने की। बहुत अच्छी की है। पर उनके आचरण में ये सूत्र नहीं आए। आचरण ही ब्रह्मनिष्ठए व ब्रह्मवादी गुरु का भेद करता है। ब्रह्मवादीए दार्शनिक हो सकता हैए घरती पर बड़ा उपदेशक हो सकता हैए पर वह ष्विवेकष् से दूर रह सकता है। ष्विवेक रक्षाष्ए ण्ण्ण् वहां मात्र सजगता है। स्वामी जीए श्कृष्णमूर्तिश् का उदाहरण इस शब्द के साथ देते थेए ण्ण्ण् ष्वहां मात्र सजगता हैए ण्ण्ण् कान्सटेन्ट एवेरनेसए तेल की धार की तरहए होती है। यह मात्र प्रवचन का विषय नहीं है। यह स्वभाव है।
स्वामी जीए विवेक को एक सहज विराट की शक्ति के रूप में इस शब्द का प्रयोग करते थे। जहां विवेक जाग्रत हो जाता हैए मात्र ष्संकल्पष् से ही कार्य होता है। जो ब्रह्मनिष्ठ हैए उनके साथए हमारी कठिनाई यही होती हैए कि हम उन्हें अपनी भावनाओंए कल्पनाओं के साथ चलाना चाहते हैं। स्वामी जी में असाधारण सरलता थीए छोटे बच्चे की तरह सरलताए कोमलताए लोग आतेए उन्हें अपनी इच्छानुसार चलाने का प्रयास करते। वे प्रायः घंटों बैठे रहतेए सुनते रहतेए फिर कहतेए ण्ण् हम बात बन्द करेए मैं थोड़ा दूसरे काम करूंगाए ण्ण् बाद में हंसते हुए कहतेएश्यहाँ लोग अपनी इच्छा से मुझे चलाने आते हैं। यह ठीक हैए या गलत है। बस आते ही बोलना शुरू कर देते हैं। हांए उन्होंने कुछ पूछा तो बोलनाए होता एनहीं तो चुप रहना ए वे कहा करते थे।एश्अधिकांश तो यहां आकर खुद ही बोलते रहते हैं। मैं तो बस सुनता रहता हूं। वे क्यों आए थेघ् उन्हें ही नहीं पता।श्
कभी.कभी कहते सत्संग के बिना विवेक ही प्राप्ति नहीं होती। श्सत्संगए ण्ण्ण् यहां चुप बैठा करोए एक ही सवाल बार.बार क्यों पूछते होए ण्ण्ण् उत्तर एक ही हैए वर्तमान में रहोए इशारा करते थे। ण्ण्ण् मुझे देखोए सद्गुरु क्या कहते हैंए यह महत्वपूर्ण नहीं हैए वे कैसे रहते हैंए यह महत्वपूर्ण है।श्
सद्गुरु के सानिध्य में रहना ही ष्सत्संगष् होता है।
करूणैव केलिः
करुणा ही उनकी क्रीड़ा है। बहुत बार यह जानना चाहा था कि जब वे जाग्रत हैं। उन्होंने अपने जीवन के उद्देश्य को पा लिया हैए फिर जीवन का अभिप्राय क्या हैघ् स्वामी जी बार.बार कहा करते थेएश् प्रकृति के कार्य में सहयोग देना ही सार है। स्थितिप्रज्ञ होकर जो प्रकृति के कार्य में सहयोग करता हैए वही वास्तविक जीवन जीता है। जीवमुक्त अवस्था की प्राप्ति का अभिप्राय सन्यास नहीं हैं कर्मों से त्याग नहीं है कर्म तो मृत्यु तक करने ही होंगे। यही वास्तविक स्थिति है। परन्तु कर्म किस प्रकार किए जाएं कि जीवन का उद्देश्य की पूर्ति भी हो जाएए तथा बंधन न होए इसके लिए वर्तमान में रहना ही सारगर्भित है।श्
ष्करुणाष् ही फिर जगत से जुड़ने का आधार हो जाता है। सेवा ही अहंकार को तोड़ती है। सेवा ही उनका आचरण था। उन्होंने सेवा प्रतिष्ठान छोटी सी संस्था बनाई थी। उसके माध्यम से स्कूल खोलाए तब उस क्षेत्र में तीस किलोमीटर तक मात्र एक मिडिल स्कूल था। बच्चों को पढ़ाया। फिर स्कूल पूरी संपत्ति के साथ लगभग बीस वर्ष चलाने के बाद सरकार को सौंप दिया। आज वहां सीनियर सैकंडरी स्कूल है। छोटा चिकित्सालय बनवाया। बकानी में एक स्कूल खुलवायाए जो भी भेंट आईए अपने लिएए अपने ऊपर एक पैसा खर्च नहीं किया। बरसों पैदल इलाके में जाते रहे। बस का टिकट किसी ने दिया तो बस में गए। भेंट के पैसे सब संस्था को दिए। संभवतः अपरिग्रह की परिभाषा यही है। तेरा तुझको सौंपत क्या लागे मेराए यहां खुद का कुछ नहीं रखा। देह तक अपनी नहीं मानी। दूसरोें के कष्ट स्वयं भोगेए अपने शरीर को भोगने दिए। कहा करते थे. यहां अपना कुछ नहीं है। स्वयं की कोई वासन नहीं। जो सामने आयाए ण्ण्ण् उसकी कामनाए जगीए भीतर पहुंचीए निर्देशित हुए उसके साथ लग गए। करुणा में भी वासना उठती हैए पर उसका दबाव दूसरों की तरफ होता है।
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स्वामीजी कहा करते थेए श्मुझे कुछ भी पाना नहीं है। बस उलीच देना है। दोनों हाथों से उलीचते जाना है। यहां मात्र जो भी हैए दूसरों को देने के लिए है।श्
वार्धक्य की रेखा हैए पर जब चलना.फिरना कठिन हो गया थाए तब भी स्वामी कहा करते थे. श्सेवा ही धर्म हैए अभी भी शरीर से नहीं कर पाताए तो संकल्पों से करता रहता हूं। उनके दरवाजे पर जो भी आयाए लेकर ही गया है। वे औधड़ दानी रहे। कहा करते थे. मेरा नाम भालचंद्र था। जिसके माथे पर चंद्रमा हो। वह शिव है। देने के लिए ही मैं हूं। जो भी हैं सब तुम्हारा है। कुटिया में एक बार चोर आसपास के कमरे में कुछ बर्तनए बिस्तर थे जो लोग वहां रख गए थेए व्यवस्था के लिए। चोर ले गए। स्वामी अपनी कुटिया में शांत लेटे रहे।
सुबह सेवक ने कहा. ताला टूटा हुआ हैए चोर सामान ले गए।
स्वामी जी बोले.उनको जरूरत थीए वो ले गए। जब यहां जरूरत होगीए प्रकृति भिजवाएंगी।
पचासों कन्याओं की शादी उन्होंने करवाई। बहुत रूचि लेते थे। दूसरों के घर बसेए वे प्रसन्न रहेंए उनका ध्यान रहता था। ष्करुणाष् ही उनकी लीला थी। वे समाज को जीवन्त तथा प्रकृति को परमात्मा की क्रियाशीलता मानते रहे। वे उसकी इच्छा मेंए अपने आपको समाहित कर चुके थे। कहा करते थे. कभी.कभी उनकी आज्ञा में भी छेड़छाड़ की हैए क्या फर्क पड़ता हैए जो करुणा कर हैंए वहां भय नहीं होता। करुणा उनकी लीला होती है। वे करने के लिए ही होते हैं। वहां कर्म नहीं होता कोई बोझा नहीं है।
बस एक खेल की तरह उसमें आनंद है। वे कहा करते थेए बचपन में हम चौपाटी पर जाते थे। वहां रेत के घरोंदे बनाते थे। बड़े.बड़े मकानए किसी को पास तक नहींआने देते थेए फिर शाम होती। अंधेरा होने का होता तब अचानक अपने पावं ही अपना घर जो घंटे दो घंटे मेहनत से बनाया थाए पावं से तोडकर घर भाग लेतेण्ण्ण् यह खेल है। जगत एक खेल से अधिक नहीं है। मात्र वर्तमान में ही भोग है। यह भोग लीला बन जाता है। जहां अतीत का बोझा भविष्य की वासना हैए माना वहां बोझ ही भोग रह जाता है। जो अनवरत चलता रहता है। क्रीड़ा हैए एक खेल हैए जिसके होने न होने में कोई विााद नहीं है।
आनंद की उनकी करुणा है.
हांए वहां माला थीए एक दिन टूट गईए दुबारा मनकांे को पिरोया गया। स्वामी जी बहुत देर तक माला को देखते रहेए फिर किसी को दे दी। बोले अब इसकी भी जरूरत नहीं है।
जब आनंद की माला गले में पड़ी होए तब किसी दूसरी माला पहनने की क्या जरूरत है। वहां प्रतिक्षण आनंद है। अहोभाव है। प्रकृति ने सौंदर्य के सारे आभूषण स्वयं प्रदान कर रखे हैं। ऐसी कोई परिस्थिति भी नहीं है। जो दुख में डाल सके।
ष्कंवरलाल की आर्थिक मदद करनी थी। स्वप्न आयाए स्वप्न में कुतिया पांव में काट गई है। परन्तु फिर भी संकल्प नहीं छोड़ा। भेंट आनी बंद हो गई। किसी प्रकार रूपये इकट्ठे हुएए एक दिन पूर्व कहीं से कथा का निमंत्रण आया थाए उसी रात फिर सपना आया काली कुतिया आईए पांव में काट लिया। दूसरा होता नहीं जाताए जब प्रकृति मना कर रही है तब क्योंण्ण्
पर गए। वहां भेंट तो मिली। पर गांव मे जाते ही कंुतिया ने आकर पांव में दांत गड़ा दिए। खून निकाल दिया। स्वामी जी शांत कथा में रहे। भोजन कियाए वापस धोती का टुकड़ा फाड़कर पट्टी बांधकर लौटे। बाद में चिकित्सक भी आए। पर वे उसी तरह शांत व अविचलित रहे। राशि पूरी होते हुए उसे देकर मुक्त हुए। यहां कर्म.करुणा के लिए था। था आनंद।
परिस्थितियां दुखद हैं या सुखद यह महत्वपूर्ण नहीं था। कारण सारे बाहर होते हैंए तब दुख भी होता हैए सुख भी होता है। जो स्वभाव है वह अकारण है। वहां मात्र आनंद ही रहता है। आनंद उपार्जन नही हैंए हमारा स्वभाव है।
एकासन गुहायाम
बहुत जगह गयाए कई गुरु मिले।एक जगह एक गुरु कह रहे थेए वह आता है। मेरे पांव पड़ता है। हाथ में मोबाइल हैए सीण्एमण् का पत्र आया हैण्ण्ण् उनके पीण्एण् ने लिखा हैए जब भी वो इधर आऐंगे। मिलेंगेए ण्ण्ण् कल कलक्टर आए थाण्ण्ण्ण् ये वाक्य प्रायःसाधु.महात्माओं के पास सुनने को मिलते हैं।
ण्ण्ण् बिना समाज की गहरी उपस्थिति के आज के गुरु रह नहीं पाते। संसार उनके चारों तरफ परकोटे सा मजबूत अहंकार खड़ा रहता है। प्रवचनकार पचासों किताबों को रच लेते हैंण्ण्ण् पर यह एकांत की गुहा दुर्लभ भी है। सद्गुरु के भीतरए जो आकाश हैए जहां उनका आसन होता है। वहां मात्र ष्केवलीष् ज्ञान रहता है। शांत ज्योति झिलमिलाती है। वे जहां रहते हैंए वह एकांत गुहा हैए वहां मात्र मौन ही उनकी पहचान है। शब्द भी खो जाते हैं। किससे क्या कहनाए किसको ध्यान सिखानाए किसको तंत्र में प्रवेश करानाए सब वृक्ष के पीले पत्तों की तरह छूटता चला जाता है। जहॉए तक क्रिया है ए करना है ए पर जहॉं करना ही गिर जाता है ए बस रहा जाता है ए वही ध्यान है। ध्यान से करते. करते ध्यान में ही रहना बच जाता हेै। बस रहो एयही वर्तमान में रहना है।
10
वहां मात्र मौन रहता है।
स्वामी जी को देखा थाए घंटोंए बरामदे में चुप बैठे रहते थे। दोनों आंखेए सुदूर आकाश में रहती थी। कई बार पूछा. ष्क्या देखते हैंघ् वे कहते थे. ष्कुछ नहींष्। पचासों लोग सामने से निकल जाते थे। वे शांत वैसे ही बैठे रहते थे। कई बार पूछा. ष्मन कहां रहता हैघ् कहते थे. ष्पता नहींष्ए आपने अभी सवाल किया हैए तो आ गयाए वरना पड़ा रहता है। यहां कोई विचार ही नहीं है। कुछ है नहीं। सब खाली है। मैं ज्यादा नहीं जानता था। न हीं शास्त्र की पहचान थी। पर इतना गहरा मौन इतना अकेलापनए जरूर ही अद्भुत लगता था। झालावाड़ में डॉक्टर भाटिया के यहां चातुर्मास किया था। तब मात्र मैं और भाणकचन्दजी दो ही परिचित थेए जो उनसे मिलने जाते। डॉक्टर भाटिया अपने क्लिनिक चले जातेए फार्म पर जाते। स्वामी जी अपने कमरे में एकान्त में रहते। शाम को जब जाताए बात होती। पूछता कोई आया थाए ष्कहते नहीं।ष् आप ही आए हो।ष्
अब जानाए एकासन गुहायाम का क्या अर्थ होता है।
सद्गुरुए प्रवचन नहीं देते मात्र कहते हैंए मुझे देखोंए मेरे साथ रहोए शब्द मात्र आचरण से ही अपना अर्थ देते है।
वहां जब दूसरा कोई नहीं होताए जो एक होता हैए वह भी खो जाता है।
तब वे. गुरुकुल सरकार को सौंपकरए सारी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर आए थे। तब मुझे साधना का ज्यादा ज्ञान नहीं था। न हीं पहचान थी। पर शास्त्र ने जब शब्द दिया है तो अचानक शब्द अपने अर्थ खोलता चला जाता है। उनका एक ही आसन थाए वे अपनी अंतर्गुहा में रह रहे थे।
एक गहरा शांत मौनए जहां उनके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं था। ब्रह्मनिष्ठ गुरुए जिस यात्रा पर होते हैंए वहां के पदचिह्न नहीं बनते। कारणए दूसरों को क्या दिखानाए क्या बतानाघ् जब दूसरा वहां है ही नहीं।
उनके पास रहकर तब जाना था ए अकेलापनए मौन और ध्यान की एकान्विति ही समाधि है। स्वमीजी इसे सहज समाधि कह रहे थे। ध्यान बस अपनी अंतर्यात्रा पर ही था। उनके साथ तब रहकर यही जाना था ए जब विचारों की संख्या अपने आप कम होती जाती है ए वही। वही स्वाभाविक मौन है। यह तब ईश्वरीय कृपा ही थी ए जो सहज ही सत्संग सुलभ हो गया था।
गुरु तत्व .स्वामी जी कह रहे थे.
श्गुरु बाहर कहां हैए वह भीतर है। उसे बाहर कहां ढूंढ़ते हो। बाहर जिसकी भी तलाश होगीए वह तो माया में होगी। गुरु विवेक है। वह जब जगता हैए उसका पता लगता हैएतब सही मार्गदर्शन होता है।श्
ण्ण्ण् यहां लोग आते हैंए प्रवचन सुना और चले गए। गुरु के पास तो जाकर रहना होता है। वह कैसे रहता हैए क्या करता हैए कैसे बोलता हैए कैसे चलता हैए तब वह विधि स्वयं के भीतर उतरती है। गुरु का आचरण उतरता है। यहां आकर रहोए देखो।ष्
स्वामी जी किसी को शिष्य नहीं बनाते थे। कृष्णमूर्ति के अनुयायी आते थे। वे बहुत खुश होते थे। कहते थे. स्वामी जी भी यही कहते हैंए ण्ण्ण् जो वे कहते थे। स्वामी जी मुस्कराकर चुप रहते थे।
कहानी सुनाते थे. किसी फकीर की। कि उसके पास भी कोई शिष्य होने को आया थाए उसने मना किया। उसने कहाए मैं तो आपको अपना गुरु मानता हूं। उसने कहा. यह तुम्हारी इच्छा हैए मेरी नहीं। तुम जो चाहोए वह मानोए पर याद रखनाए जिस दिन तुम्हें लगेए तुम्हारा शिष्यत्व गिर गया हैए ष्जान लेनाए तुम खुद गुरु हो गए हो।ष् वे कहते थे. मैं शिष्य नहीं बनाताए तुम गुरु स्वयं के बनोए यह चाहता हूं। गुरु तो तुम्हारे भीतर हैए उसे बाहर कहां तलाश करते हो। जो भी बाहर मिलेगाए वह भटकाएगा। जो तुम्हारे भीतरए गलत हैए उसे हटाते जाओए सही अपने आप बाहर आता जाएगा। जो सही हैए वही विवेक है।
ण्ण्ण्ण् जो गुरु है. उनका आचरण ही उनका वचन है। वहां कहीं भी कुछ भी आवरण नहीं रहता। एक छोटी सी कुटिया में मात्र एक थैले के साथए स्वामी जी रहते थे। एक तख्त और चौबीस घण्टे उनकी खुली कुटिया। कहीं कोई पहरेदार नहीं था। जो भी आता उसकी भोजन की व्यवस्था अपने आप होती थी। वहीं बन जाता या बाहर से बनाकर कोई ले आता। पर जो भी आयाए उसकी व्यवस्था यहां अपने आप हो जाती थी।
शास्त्र कहता हैए जो परम हंस हैं.
उनका सिद्धांत. आकाश की तरह निर्लेप है। वहां कोई अपना रंग नहीं है। उनके अपने कोई बादल भी नहीं हैं। उन्होंने चूड़ाला आख्यान पर कृति लिखी थी. नाम दिया था. ष्अनंत यात्राए अनंतए जिसका कोई अंत नहीं। मात्र वर्तमान में रहना ही उनका नीतिवाक्य थाए वही आचरण था। वही साधना थी। वहां जो थाए ण्ण्ण् प्रत्यक्ष था। माध्यम किसी प्रकार का नहीं था। ण्ण्ण् गहराई थी। आंखों की दृष्टि कम हो गई थी।ण्ण्ण् पर वे समाचार पत्र पढ़ते थे। रात के अंधेरे में बिना बत्ती जलाए बाथरूम चले जाते थे।
वे उस आकाश को पा चुके थेए ण्ण्ण् जहां इन्द्रियां भी अपना स्वयं का बोध छोड़ देती है। वे उस चेतना के निर्मल आकश में रहते थे.
ण्ण्ण् अमृत की तरंगों से युक्त ण्ण्ण् जैसे कोई सरिता है। ऐसी उनकी चेतना है। उनके पास बैठना ही पर्याप्त था। बहुत से लोग तो कुछ बोलते ही नहीं थे। भीड़ में चुप आकर बैठ जाते थे। वे बुलातेए आगे बुलातेए फिर उसकी समस्या का समाधान उसे बताते। बिना कहेए ण्ण्ण् अनकहे को उत्तर प्राप्त होता था। एक सम्मोहन सा उठता थाए उसके मन को ऊर्ध्वगति प्राप्त हो जाती थी। कई बार तो लोग आतेए ण्ण्ण् चले जाते थेए फिर आना होगा। वे दुख वहीं छोड़ जातेए ण्ण्ण् पातेए तरंगित होकरए प्रसन्नता के साथ।
अक्षमे निरंजनम्. अक्षय और निर्लेप उनका स्वरूप होता है। अक्षय ण्ण्ण् जिसकी क्षति अब होनी असंभव है। जो क्षरण के पार चला गया हो। जो क्षरित होता हैए वह मन हैए वहीं पतन की संभावना होती है। जो उसके पार चला गयाहै। जहां मात्र अनुभव है। जो हैए वही उसका स्वरूप है। ष्तत्ष्. ब्रह्म का समानार्थी है। स्वामी जी कहा करते थे. ष्सोऽहंएण्ण्ण् वही मैं हूं।
11
निःसंशय ऋषिः
वहां कोई संशय नहीं होता है। स्वामीजी का आप्त पचन था एष्संशयात्मा विनश्यतिष्ए ण्ण्ण् उनका आप्त वचन था. ष्एक बार सोचोए निर्णय करोए वे अधिकतर मौन रहते थे। हांए कभी कुछ कहना हो तो मात्र बस ठीक हैए ण्ण्ण् यह अर्धवाक्य ही पर्याप्त होता था।
वहां कोई संशय नहीं था। जो संशय से शून्य हैए वही ऋषि हैए वही जाग्रत है। रामकृष्ण परमहंस की पहचानए ष्महिला साध्वी ने लक्षणों के आधार पर की थी। शास्त्र में सद्गुरु की पहचान के लक्षण हैं। सद्गुरु कहीं पर भी अपनी पूजा नहीं करवाते। स्वामी जी ने कभी गुरु पुर्णिमा पर पूजा नहीं करवाई। पांवों पर रोलीए चावल लगाने को मना करते थे। ष्आत्मवत सर्वभूतेषुए कोई और नहींए कोई गैर नहींए ण्ण्ण् जब यहां कोई दूसरा है ही नहींए फिर किसकी पूजा होगी। कहा करते थे. आप लोगों का कहना हैए कि आप साल में आकर मिल लेते होए अच्छी बात हैए आप आओए पर मेरी पूजा होए यह मुझे प्रिय नहीं है।
ण्ण्ण् वहां कोई संशय नहीं था। कोई भ्रम नहीं। कल भोजन मिलेगा या नहींए चिता नहीं। कोई बैंक बेलेन्स नहीं रहा। कभी भी नहीं रहा। प्रकृति स्वयं जीवन चर्या को वहन कर लेती हैए इतने वे आश्वस्त रहे। संशय से शून्य होनाए सद्गुरु की पहचान है। पर यह तभी संभव हो पाती हैए जबके उसे अपने भीतर ष्अक्षयष् की प्राप्ति हो चुकी हो। अक्षय का अनुभव ही वास्तविक अनुभव है।
ष्केरोलष् अमरीका से आई थी। वह भारत में जागृत पुरुषों का कार्य कर रही थी। केलीफोर्निया विश्वविद्यालय से उसे छात्रवृत्ति मिली थी। स्वामी जी ने उससे पूछा था. तुमने मुझसे पूछा हैए मैं जागृत हूंएए मैं तो नहीं कहता। तुम बताओए जागृत पुरुष की क्या पहचान हैघ् शोध तुम कर रही हो। उसने पूछा था. उसका सवाल थाएवह साईंबाबा तथा श्अम्माश् से मिलकर आई थी।
उसने मुझसे भी पूछा था ए मेरे पास आधार श्निर्वाण उपनिषदश्ए था। यह अज्ञात परमहंस की कृति है। मैंने उससे कहा. ष्जहां संशय नहीं हैए कोई भ्रम नहीं होताए जहां मन वाणी में हैए वाणी मन में हैए जहां अक्षय की प्राप्ति हैए जहां मात्र सागर की तरंगे निरंतर गतिशील हैए ण्ण्ण् छू जाती है। उनके सहज स्पर्श से दृश्य तरंगित हो उठता हैए वहीं मात्र जागृति है। सद्गुरु वही हैए जो जान लेता हैए जाना गया उसका होता है। किसी ग्रन्थ का नहीं।जो मात्र अनुभव में हैएशब्दों में नहींएवहीं जाग्रत है।
तब हम पहचान के सूत्र तलाश कर रहे थे।
स्वामी जी से उसने पूछा था. ष्यहां तो कोई आश्रम नहीं है। किसी प्रकार की पूजा.अर्चना नहीं है।श्
वहां कुटिया के पास दूसरे कमरे मेंए वहए उसका पति तथा उसका बेटा नारायण ठहरे थे।
स्वामी जी ने हंसकर कहा था. मैं यहां सेवा के लिए आया थाए ण्ण्ण् तुम बताओं तुम्हें कोई असुविधा तो नहीं हैघ् वहां कुटिया में सामान तक नहीं था। वह चकित थी। वहां कोई भ्रम नहीं था। कोई संशय नहीं था। स्वामी जी के पास अपने कोई सवाल नहीं थेए वह कौन हैघ्ए कहां से आईए क्या चाहती हैएउससे कुछ भी नहीं पूछा गया था। वह चकित थी। वे उसके सवालों के बस उत्तर दिए जा रहे थे।ष्
स्वामी जी कहा करते थे.ष् मैं शिष्य नहीं बनाता। जो मैं हूंए वह तुम्ही हो। ष्अपना पता करोए सवाल मुझसे मत पूछोए ण्ण्ण् उत्तर अपने आप से पूछो। जिस दिन तुम्हें अपने भीतर से उत्तर आने शुरू हो जाएंगेए ण्ण्ण् तुम वहीं तो हो जो मैं हूं।
वहां मात्र मौन थाए एक गहरी शांतिए जहां सब कुछ खो गया हो। उसी का नाम स्थितप्रज्ञश् होता है।
वे बुद्ध की भाषा में कहा करते थे। ष्लौ हैए जो बुझने के करीब हैएए ण्ण्ण् पर अभी ज्योतित हैए ण्ण्ण् पहले जो दिया रात.दिन जलता हैए धुंवा देता है।ण्ण्ण् वह बाती निःशेष हो जाती है। वहां बुझ जानाए ण्ण्ण् वृत्तियों के अब न उठने का प्रतीक है। लहरें उठेंगीए भीतर चट्टान से टकरा.टकराकर लौट जाएंगी। भीतर कुछ हैए ही नहीं। खाली। एक दर्पण। चेहरे बने। मिट गए। दर्पण खाली है। जब तक प्रकृति को यह शरीर रखना हैए रहेगी। फिर यह भी गिर जाएगा।
ण्ण्ण् हांए जहां भीतर का सब कुछ बुझ जाता हैए वहां प्रकृति से सहयोग ही लक्ष्य रहता है। स्थित प्रज्ञ होकर कहीं पलायन नहीं है। कर्म तो फिर भी होगाए वह प्रकृति के साथ सहयोग होगाए जब तक यह भांडा भी नहीं फूट जाए। लहर को सागर में विलीन तो होना हैए पर अब अपनी कोई इच्छा नहीं है। प्रकृति की इच्छा हैए लहरें आएंगीए अपने साथ लहर को ले जाएंगी। सब उसी का है।
फिर वहां कुछ भी शेष नहीं रहता।
शास्त्र कहता है. ष्ष्निष्कुल प्रवृति। वे सर्व उपाधियों से मुक्त हैं। जहां अहंकार ही नहीं है। मैनें कुछ कियाए यह भावना ही नहीं है। सब हो रहा हैए तेरी इच्छा पूरी होए यही भावना शेष रह जाती है।
ण्ण्ण्ण्ण् कहीं कुछ होने की संभावना नहीं। स्वामी जीए साधारण जन के यहां चले जाते थे। कोई भोजन काए कोई वस्त्र काए आदर का कोई आग्रह नहीं रहा। अहंशून्यता का वहां पूरा आदर था। जिसके आसपास अन्य सारी उपाधियांए लोभए मोहए क्रोध एकत्रित होते हैंए जब वही चला जाता हैए तब उन अतिथियों का क्या कहां रहना संभव होता हैघ्
आज देखते हैं। छोटे से भगवाधारीए उपाधियों से युक्त है। बिना उपाधि के वे चल नहीं पाते। शासन से पुलिस का प्रबंध चाहते हैं। उन्हें भी जान का खतरा है। स्वयं भयभीत है। ऊँचा स्थान बैठने को चाहते हैंए वहां दूसरा कोई नहीं बैठ पाए। अपना दंड.कमंडल साथ लेकर चलते हैं। वाहन चाहिए। मोबाइल चाहिए। साधारण जन को अभिभूत करने की पूरी चेष्टा रहती है।
जो स्वयं भयभीत हैंए जिसका अहंकार पत्थर की तरह कठोर हैए वहां ज्ञान कहां से होगाघ् वे ज्ञान बन्धु है। ज्ञान विक्रेता ही हैं। जहां कोई उपाधि जगह नहीं पाती है।जहॉ। वह अपना आदर नहीं पाकर विदा होने लगती है।
वहां मात्र जो रहता है. ष्वह ज्ञान है। केवली ज्ञान रहता है।
वह शब्द ही ज्ञान है। मौन भी ज्ञान है। स्वामी जी कहा करते थे. गुरु के पास जाकर रहो. उसका आचरण देखोए वही शिक्षा है। गुरु स्वयं तुम्हारे भीतर उतरना चाहता हैए जगह तुम्हें देनी है। थोड़ी सी जगह। क्योंकि क्योंकि वहां केवल ज्ञान हैए जहां ज्ञान हैए वहां प्रकाश हैए जहां ज्ञान हैए वहां अमृत है। ण्ण्ण् वहां निस्सशंयता हैए वहां कोई उपाधि नहीं हैए कोई ग्रन्थ नहीं है। ण्ण्ण् कोई वस्तु संग्रह नहीं है। धरती पूरी ही उसकी कुटिया हैए वह जहां है वहीं गुरुकुल हैए वह जहां है वहीं अनंत यात्रा है। क्योंकि वह पूरा ही मिट गया हैए उसका अपना कुछ भी शेष नहीं रहा है। सब प्रकृति में हैए प्रकृति का हैए सच हैए प्रकृति एक मां की तरह उन्हें रखती थी।
12
स्वमीजी के पास रहकर जाना था ए साधना के चार पड़ाव है घ् अकेलापन ए मौन ए ध्यान और समाधिएपर अगर आप वर्तमान में एक पल भी आकर रहें्रएतो चारों की एकान्विति अपने आप हो जाती हैे। बिना विचार के मन का रहना ही ध्यान है ए पर यहॉं अन्य परंपराओं की तरह शरीर निष्क्रिय नही है। मन की निष्क्रियता है। और यही निरंतर बनी रहने वाली स्थिति ही सहज समाधि है।
शास्त्र ने उस परम ब्रह्मनिष् गुरु के प्रति संकेत करते हुए कहा है.
मुक्तासन सुख गोष्ठी
मुक्तासन तभी संभव होता हैए जब भीतर इतना अकेलापन हो जाता है कि मात्र दृष्टा ही शेष रह जाता है। भीलवाड़ा प्रवास में स्वामीजी को देखा थाए ण्ण्ण् वे घंटों बरामदे में शांत बैठे रहते थे। हम पूछते थेे. आप क्या देखते हैंएवे कहतेए कुछ नहींए बस चित्र आते हैंए बनते हैंए बिगड़ते हैंए वहां भीतर कुछ भी शेष नहीं रहता। मैं भी नहीं।श्ण्ण्ण् अगर खाने का समय निकल गया तो भूख भी नहीं रहती। शास्त्र मात्र सूचना देते हैं। क्या यह संभव हैघ् सिद्धों की भूमिका मात्र उनका आचरण होता हैए सामान्य बुद्धि से हम उनकी पहचान नहीं कर पाते हैं। प्रायः जब हम अकेले में होते हैंए कोई दूसरा साथ नहीं होताए ण्ण्ण् तो अपने आपसे बातें करते हैं। मन भूत और भविष्य में तुरंत चला जाता है। हम ही सवाल करते हैंए हम ही उत्तर वहां देते हैं। पर तो ष्मुक्तष् है। ण्ण्ण् वे निरंतर मुक्तासन में हैंए उनकी गोष्ठीए मिलन मात्र सुख में है। सुख स्थाई सुख। वह किसी परिस्थिति पर निर्भर नहंीं है। वहां दूसरा अपने आप उपेक्षित हो गया है। ण्ण्ण् वहां वे नित्य आनंद में है। आनंद में ही विचरते हैं। स्वामी जी कहा करते थे। यहां आनंद रहता हैए तुम्हें प्रेम अनुभव होता है। यह प्रकृति का स्वभाव है। आकर्षण उसका स्वभाव है। पूर्णमासी के चांद को देखकरए सागर का जल अपने आप हिलोरें मारता है। ण्ण्ण् चांद तो कुछ नहीं करता। जो मुक्तासन में हैए वहां नित्य सुख है। वे जहां भी हैए ण्ण्ण् वहीं उनकाआश्रम है। वही वे हैं।
अकल्पित भिक्षाशी
ण्ण्ण् कोई कल का प्रश्न उनके पास वहां नहीं होता। जिसने प्रकृति को अपने आपको पूरा सौंप दिया होए भला भी तेराए बुरा भी तेरा। जो हो रहा हैए सब स्वीकार है। स्वामी जी का जीवन इसी अकल्पित आयोजन से भरा हुआ है। ण्ण्ण् शिवानंद जी ने कहाए इन्दौर जाना होगा। इन्दौर आगए। वहां फल वाले के यहां श्महूश् में काम कियाए वहां से श्इन्दौरश् आए। भंडारी मिल में काम कियाए वहां दीक्षित जी के घर के सामने कमरा थाए वहां रहे। स्वमी राम से मिलने गएए वहीं चीफ जस्टिस जामेकर आए। उन्होंने अपने साथ चलने को कहाए उनके साथ चले गए। सामान मात्र एक थैला था। देश आजाद हुआए 30 अगस्त को न तो नौकरी से इस्तीफा दियाए न अवकाश लियाए अपना थैला उठायाए ण्ण्ण् सन्यास लेने के लिए ऋषिकेश चल दिए। सन्यास लियाए वहां की व्यवस्था रूचिकर नहीं लगी। भरतपुर गएए फिर बकानी आए।
ं कोई भोजन की भी स्थाईव्यवस्था नहीं। कल भोजन मिलेगा या नहींए उसकी कोई चिन्ता नहीं। मोलक्या में चार बांस मंगवाएए झोंपड़ी बना ली। न भाषा का ज्ञानए न कोई परिचितए मात्र एक प्रकृति का आश्रय। स्वामी जी प्रकृति को ब्रह्म की क्रियाशीलता कहते हैं। केनोपनिषद में इन्द्र को भगवती उमा यही कहती है कि वह यक्ष ही ब्रह्म था। वे पूरी तरह प्रकृति पर आश्रित रहे । अपने आपको पूरी तरह प्रकृति पर छोड़कर जीना। इतना अपने ऊपर गहरा आत्मविश्वास। वहीं पाया। याचक नहीं बनना है। भिक्षा के लिए नहीं ण्ण्ण्। कहते थे. श्जब प्रकृति ने आज तक भूखा नहीं रखाए कहीं ना कहीं से अनायास आ जाता हैए तब फिर उसकी योजना क्योंघ् गुरुकुल में जब भी गएए दस हो या बीस आदमीए भोजन की व्यवस्था अपने आप होती गईं। बिना सूचना दिए लोग पहुंच जातेए उनको वहां व्यवस्था मिल जाती। जबकि वहां नियमित भोजनशाला नहीं थी। बकानी से ही भोजनए आना था। वहां कोई पूर्व कल्पना नहीं रहती थी। वहां अपने लिए कोई वांछा नहंी थी। कोई आवश्यकता नहीं। एक झोलाए उसमें मात्र दाढ़ी का सामान। एक धोती के दो टुकड़े। दो आधे कुरते। मात्र यही तो कुल सामग्री थी। ऊनी वस्त्र भी बहुत वर्षों बाद धारण किया था। किसी वस्तु के प्रति कोई आकांक्षा वहां नहीं थी। जब सब कुछ प्रकृति पर छोड़ दिया हैए तब वह जो करवाएगी वही होगाए ण्ण्ण् इतना गहरा उनका विश्वास था। कभी नहीं मांगा। ण्ण्ण् कुछ चाहा ही नहीं।
अंतिम अवस्था में जब बीमार थे। पांव में घाव हो गया था। लोगों ने कहाए ष्आप चाहें तो ठीक हो सकते हैं।संकल्प तो करेंए ण्ण्ण् स्वामी बस हंस देते थे। यही कहते थे.ण्ण्ण् श्क्या अभी भी आप मुझे नहीं समझे। ण्ण्ण् इस शरीर के लिए क्या मांगनाए ण्ण्ण् उनके बांये हाथ के स्पर्श से बहुतों की शारीरिक व्याधियां दूर हो जाती थी। कहा. ष्आप अपना हाथ तो पांव पर रख दे। वे मुस्कराकर कहते. शक्ति मेरी नहीं थीए उसकी थीए हाथ भी उसी का हैए यह पांव भी उसी का ही है। नहीं अकल्पित भिक्षाशीण्ण्ण् जब पूरा ही उस पर छोड़ दिया हैए तब यहां अपना क्या हैघ् बाइबिल का आप्त वाक्य दोहराते थेए श्दाई विल बी डनएश् तेरी इच्छा पूरी हो।
13
हंसाचाररू
हंस जैसा आचार है उनका। संतों को सिद्धों कोए परमहंस कहा जाता है।रामकृष्ण लीलामृत की कथा हैए श्भैरवी ने आकर रामकृष्ण की पहचान की थी। कहा था. श्ये सिद्ध हैंए ण्ण्ण् परमहंस हैं।श्
हंसए जो सार और असार के भेद को जानता है। अव्यर्थ में से व्यर्थ को अलग कर देता हैंए जो विवेकी हैए जहां विवेक जगता है।ए वहां बुद्धि शुद्ध हो जाती है। बुद्धि की शुद्धता के बाद ही विवेक जागृत होता है। विवेक अलोकिक है। विवेक शक्ति है। सकारात्मक उर्जा है। जो अन्तर्मुखता की पहचान बनती है।
कहा जाता हैए या तो हंस मोती चुगते हैंए या भूखे मर जाते हैं। ण्ण्ण् वह फिर असार के लिए अपना जीवन नहीं जीता। जो छूट गया तो छूट गया। पदार्थ और उसका सम्मोहन असार है। उसकी क्या कीमत। मात्र कांच के टुकड़े हैए फिर वह ंसग्रह नहीं करता। बैंक बेलेंस नहीं बनाता। एफण्डीण्आरण् नहीं। संपत्ति नहीं।बड़े.बड़ेआश्रम नहीं बनाताएदेश. विदेश में शिष्यों की खोज नहीं करताए।
स्वामी जी अपनी कुटिया में ताला लगाकरए शिक्षा अधिकारी को सूचित करए बकानी छोड़ गए थे। कुटिया सरकार ने उन्हें सौंपी थी।लेख पत्र में थाए आप जब तक हैंए रहे। फिर वह भी उन्हें बोझ लगा। स्कूल पहले ही छोड़ चुके थे।सारी संपत्ति राज्य सरकार को दे चुके थेए कुछ भी अपने पास नहीं रखा।पदार्थ अगर असार हैए तो फिर उसका क्या संग्रह करना। व्याख्या करना सरल है। बहुतों ने उपनिषदों की व्याख्या की है। बहुत स्वयंभू जागृत पुरुष हुए हैंएैए पर वे असार से जुड़े रहे। श्रेय और प्रेय का बोझ नहीं उतार पाए। संपत्ति और प्रशंसा की भूख में दुनिया भर में घूमते रहते हैं। क्या मिलाघ् ण्ण्ण् असार से सार नहीं मिलता। जो हंस हैए वे एक ही बात जानते हैं.ष् ष्आत्मवत सर्वभूतेषुय सर्वभूतेषु हितैरतःष्।
वे अपने आचरण से एक ही बात करते है. जो सब के भीतर बसा है। वह मैं ही हूंए जो मेरे भीतर बसाए वह तुम्हीं होए तुम्हारा कल्याण हो। हित होए बस यही एक मात्र वांछा है। अपने लिए कुछ भी नहीं बस जो भी होना हैए बस तुम्हारे लिए हो।
. जानाए हां बहुत बाद में जानाए ण्ण् शास्त्र जिसे परिभाषित कर रहे हैं। वे शब्दए उनका आचरणए वे शब्द जिस स्वरूप की व्याख्या कर रहे हैं. वे शब्द हमारे भी इतने ही पास थेएं जितना कभी सोचा भी नहीं था।
आज उनकी स्मृतियाँ ही साथ हैंए शब्द पास आकर बिखर जाते है।
केनोपनिषद मात्र ग्रंथ ही नहीं ए जीवन का भाष्य है। इन्द्रियॉं कहो या देवता सामने ब्रह्म थाए पर वे नहीं पहचान पाए। कथा संकेत ही करती है। मन आश्वस्त नहीं होता। वह प्यासा आता हैएप्यासा ही चला जाता है।
फिर हम तो अज्ञानी ही थेएग्रंथों के बोझ से लइे हुएए अपनी. छोटी. छोटी कामनाओं की पूर्ति के दासएअमृत सरोवर के तट पर प्यासे ही रह गए।
आज जब स्मृतियों के थपेड़े मनऔर मस्तिष्क को झिझोर जाते हैं एतब बस आशा की एके ज्योति ही ए ज्योतित हो जाती है ए वे कभी हमारे ही साथ थे ए हमारे पास थेए ।
14 धैर्य कन्था।
उदासीन कौपीनम्।
विचार दण्डः।
ब्रह्ममावलोक योग पट्टः।
श्रियां पादुकाः।
परेच्छाचरणम्।
कुण्डलिनी बन्धः।
परापवाद मुुक्तो जीवनमुक्तः।
जब मेैं पहली बार स्वामीजी से मिला थाए सन् 1972 का जुलाई माह था ए स्वामीजी का झोला अपनी साइकिल पर लटकाए हुए था ए कुछ प्राध्यापक मित्र मिले ए उनका एक ही सवाल था ए आपने ऐसा क्या देखा ए जो आप इतने प्रभावित होगए ए इस बात का मेेंने तब कोई उत्तर नहीं दिया था। पर एक अलौकिक संबंध है ए जो भीतर से अंतःप्रेरणा संकेत कर रही हे। आज स्वामीजी के महानिर्वाण के बीस साल पूरे होने को आए लगता है ए जैसे सब कलकी ही बात हो ए स्वामीजी की पहचान ए उनकी विशिष्टता क्या हैघ् रामकृष्ण परमहंस के लीलामृत में इस कृति का जिक्र आया हैएए लगा यही तो वह पहचान थी ए जो कभी भारत में सन्यासी की थी। जिसको स्वामीजी जीते रहे।
उपनिषद के ऋषि कहते हैं.
धैर्य उन की गुदड़ी यसंयास की झोली है।
उदासीन वृत्ति लँगोटी है।
विचार दण्ड है।
ब्रह्म.दर्शन योग.पट्ट है।
सम्पत्ति उन की पादुका है।
कुंडलिनी ही जीवन की उर्जा है।
परात्पर की अभीप्सा ही उन का आचरण है।
वह आत्मप्रशंसा और परनिंदा से दूर जीन्मुक्त है।
सत्य और ऋत
ष्
मैं ऋत भाषण करूंगा. मैं सत्य भाषण करूंगा.
ऋत का अर्थ होता है स्वाभाविक। प्राकृतिक जो जैसा हैए वैसा मैं वहीं कहूंगा। अन्यथा नहीं कहूंगा। जो सही हैए ़ऋत से ही राइट शब्द बना है।
सत्य शब्दए भाषिक वचन है।
हां वाणी जब मन में और मन जब वाणी में सन्निहित हो जाता है। तब वचनए सत्य हो जाता है। वही कहा जाता हैए जो कहा जाने वाला होता है। जो अनर्गल थाए वह बहुत पहले ही गिर जाता है। जब तक दूसरा सम्मुख हैए तब तक विचारणा का गहरा दबाव रहता है। भीतर अवधारणा भी रहती है। स्मृतियों का दबाव रहता है। पर जब अंतर्यात्रा में प्रवेश होता है। तब वाणी मन में रहती है। मन वाणी में आ जाता है।
जब जो भी कहा जाता हैए वह सहज स्वाभाविक होता है। सत्य के साथ होता है।
स्वामीजी कहा करते थे.ष्ष्जहां नहीं बोलनाए नहीं बोलना हांए हूं से काम चल जाता है। चुप रहोए सुनते रहो। ण्ण्ण् लोग आते हैं अपनी दुनिया भर की सांसारिक बातों से भरे होते हैं। समाधान चाहते हैं। मैं बोलूं। इतनी तो समझ उनको है। कि मैंने कहाए है तो हो जाएगा। पर प्रकृति की आज्ञा मेंए मैं कौन दखल देने वाला होता हूं। जहां भीतर से उत्तर आयाए उत्तर रेडीमेड आता हैए कह दियाए ठीक हैए इससे अधिक नहीं। लोग घुमा फिरा कर एक ही बात को बार.बार पूछतेए परन्तु उत्तर जो भी आताए वही एक आता।
देखा है। जहां वाणी मन में आकर ठहर जाती है और मन वाणी में वहां वचनए सत्य तथा ऋत ही होता है। शब्द खोखले नहीं होते। सहज स्फूर्त तथा गहराई लिए होते हैं। अनुभूति गहन होती है।
धैर्य कंथा
धैर्य उनकी गुदड़ी है।
स्वामी जी कहा करते थे. तितीक्षाए ण्ण्ण् उन्होंने अपने अंतिम गुरुपर्णिमा के उत्सव में गीता के इस श्लोक को. श्तान तितीशस्व भारतःए को समझाया था। पहले भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कौन्तेय कहा हैए फिर बाद में भारतः कहा है। बातए अर्जुन के माध्यम से पूरे भारतवर्ष के लिए थी।
ण्ण्ण् सहन करोए ण्ण्ण् सुख व दुख में समान रहने की भावना धैर्य है। यहां उतावलापन नहीं होता। जहां उतावलापन होता हैए वहां आत्मविश्वास की कमी होती है। जो सन्यासी का झोला होता है। उसे कंथा कहते हैं। स्वामी जी के झोले में मात्र आधी धोती व लंगोटी रहती थी। दाढ़ी का सामानए चश्मा आधे.कुर्ते की जेब में रहता थाए परन्तु उस झोले में ताकत थीए वह उनका धैर्य था। अनंत धैर्य। वही उनकी शक्ति भी। ण्ण्ण् उन्होंने एक बार मुझे पत्र में लिखा था. ष्तुम्हारे भीतर आत्मविश्वास की अत्यधिक कमी हैए ण्ण्ण् धैर्य से रहने की उनकी आज्ञा थी। परिवार में तथा सरकार की नौकरी में बाहर का दबाव बहुत रहता थाए ण्ण्ण् हर पल तबादले की आकांक्षा थीए ण्ण्ण् वे कहा करते थे। ण्ण्ण् बस सामना करोण्ण्ण् धैर्य व अभय दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ण्ण्ण् जो जहां भी साधना में हैए साधनारत हैं पहली बात तो उसके भीतर आत्मविश्वास होना चाहिएए ण्ण् वह आता हैए धैर्य सेए ण्ण्ण् जैसे संसार में रहने के लिए धैर्य चाहिएए उसी प्रकार अभ्यासी के भीतरए अपनी साधना में धैर्य चाहिए। कल ही मुझे कुछ मिल जाएगाए कोई अनुभव होगाए यह व्यर्थ का सोच है। उससे दूर रहो। धैर्य हो। धैर्य का तात्पर्य हैए अभी कुछ हुआ हैए या नहींए पता नहींए कुछ होगा या नहींए पता नहींए पर मेरे पास निरंतर कर्म के प्रति संलग्नता है। और कुछ नहीं। ष्स्वे.स्वे कर्मणे रतःए निरन्तर एश् मैं अपने कर्म के प्रति संलग्नता में हूं। पर मन में कोई उहापोह नहीं है।यह सतर्कता रहे।श्
उदासीन वृति है लंगोटी है.
जो संत हैंए वे उदासीन हैं। जहां.जहां हमारा मन जाता हैए वे वहां नहीं है। जहां.जहां हमारा मन नहीं जाताए वहां पर वे हैं।
उदासीनए उत$आसीन। जो अब ऊपर उठ गया है। वह न अच्छे में हैए न बुरे मेंए वांछा ही नहीं है। जिसने प्रकृति पर अपने आपको पूरी तरह छोड़ दिया हैए स्वयं का कोई चुनाव नहीं है। शास्त्र कहता हैए ण्ण्ण् वीतराग है। ण्ण्ण् राग से ही परे जो जा चुका है। राग में अपनी कामना है। मन निरंतर गति में है। परन्तु जहां पर उदासीनता हैए वहां पर तटस्थता निशेधात्मक नहीं है। वह पलायन में नहीं है। वह न राग में हैंए न विराग में है। वह दोनों स्थितियों से ही ऊपर उठ चुका है। यह तटस्थता विधायी होती है। वह किसी प्रकार के नकार में नहीं होता है। श्न निंदे न वंदेएश् स्वामी जी तुकाराम का अभंग सुनाया करते थे। यह तटस्थताए ण्ण्ण् पलायन में नहीं हैए ण्ण्ण् वरन अत्यधिक प्रसन्नता में होती है। उसके अपने भीतर अहर्निश आनंद रहता हैए तथा दूसरे के भीतर प्रेम उपजता है। ण्ण्ण् उसके समीप जो आता हैए वहीं कुछ घट जाता हैए परन्तु वह तो अप्रभावित रहता है।
जिसका कंथा धैर्य का है। तथा लंगोटए जिसने शरीर को सहज रखा हैए वह उसकी उदासीन वृति होती है। स्वामीजी कहा करते थे. हम सुधार करने वाले कौन होते हैंघ् सोचो हम खुद तो ठीक हुए नहीं दूसरों को ठीक करने चलते हैं। प्रकृति अपना कार्य स्वयं कर रही हैएवहाँ कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। एक गति हैए जो आज सही हैए वह कल गलत हो जाता हैए तेज परिवर्तन है। हांए उदासीन होकरए जो तटस्थता प्राप्त होती हैए वहां हम प्रकृति के कार्य में उसके सहयोगी हो सकते हैं। यह मात्र संभव होता हैए निरंतर वर्तमान में रहने से।
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विचार दंड है।
विचारणाए और विचार प्रक्रिया तथा विचार में भेद है। स्वामीजी कहा करते थे. ज्ीपदा वदबम ंदक कपबपकम वदबमए ंदक दमअमत ींअम ं ेमबवदक जीवनहीजण्
विचार प्रक्रिया होगीए ण्ण्ण् पर जिस वक्त जो विचार उठा हैए मन उस पर पूरी तरह सोचेगाए हर पहलू पर देखेगाए फिर तत्काल निर्णय लेगाए ण्ण्ण् जो हैए उस पर रहेगा। वहां बार.बार उहापोह नहीं रहेगी।अनावश्यक विचारणा को अभिशाप कहा गया है। विचार पर बार.बार विचार करना ही विचारणा कहा जाता है। जो वर्तमान में हैए वहां विचारणा तो नहीं हैए परन्तु विचार हैए वहाँ निर्णय होता है। तभी उसकी वाणी उनके मन में रहती है। मनए वाणी में रहता है। जो कह दियाए वह प्रकृति की क्रियाशीलता पर एक लकीर सा खिंच जाता है। स्वामीजी के पास रहकर जानाए वे निरंतर मौन में रहते थे। लोग आतेए वे बस सुनते रहतेए कभी कुछ हुआ तो एक वाक्य निकलता था. ष्सब ठीक हैए यह वाक्य बहुत कम बाहर आता थाए पर जब कह दियाए तब वह घटना घटके ही रहती थी। दंड सन्यासी का अनुशासन हैए उसकी प्रतिष्ठा है। वह उसके भीतर की ष्वाकष् शक्ति हैए ण्ण्ण् जो उसके विचार से पैदा होती है। तभी शब्द शक्ति का पर्याय बन जाता है। हांए वहां न स्मृति का दबाव होता हैए न ही किसी प्रकार की अवधारणा होती है। स्मृति पाप हैए अवधारणा अभिशाप हैए अनावश्यक विचारणा दुष्कर्म है। ये तीन बुनियादी सिद्धान्त हैए जहां विचार जन्म लेता हैए वहां निर्णय की स्थापना होती हैए जहां शक्ति होती है।
ब्रह्ममावलोक योग पट्ट .
ब्रह्मदर्शन ही उस सिद्धका योगपट्ट है।
ष्योग पट्टष् प्रमाण.पत्र। कैरोल अमरीका से भारत में जो जाग्रत पुरुष हैए जो सिद्ध हैंए उनकी तलाश मेंए उनकी पहचान करने तथा उनसे मिलकरए अपना शोध करने आई थी। वह स्वामीजी के पास भी गई। वहां कोई आश्रम जैसी व्यवस्था नहीं थी। पास के कमरे में उसका परिवार ठहर गया था। देहात। आधुनिक सुख.सुविधाओं से दूर। स्वामीजी का उससे प्रश्न था. ष्जाग्रत पुरुष के बारे मेंए आप जानना चाहती हैंए आप पहचानंेगी कैसेघ् वह तो कहेगा नहींए आपके पास क्या साधन हैए पहचानने केए ण्ण् वह है या नहींघ् वह वहां तीन दिन रही। शोध कार्य कर रही थी।
ण्ण्ण् हमारे यहां विद्वान होते हैंए उनके पास शास्त्र हैंए दार्शनिक होते हैंए वे मननए चिंतन करते हैं। तत्व की जिज्ञासा बुद्धि से हल करते हैं। मान.सम्मान पाते हैं। दर्शन का सीधा अर्थ होता है। देखनाए ण्ण्ण् कबीरदास कहते थेएश् मैं कहता आंखन की देखी। . वहां इन्द्रियजन्य ज्ञान नहीं है। इन्दियजन्य ज्ञानए यहाँ विज्ञान का प्रारंभ है। बुद्धिजन्य ज्ञान होता है विज्ञानए तकनीकीए शास्त्र का ज्ञान है। बुद्धि ही कारण है। तीसरा अनुभवजन्य ज्ञान होता हैए यहां मात्र अनुभूति होती है। बुद्धि शुद्ध होकर विवेक में ढल जाती है। वहां मात्र दर्शन होता है।
ब्रह्मज्ञान शब्द ही दूषित है। ब्रह्मानुभूति हैंए जिसे पाकर फिर विमोहित होने की संभावना कम होती चली जाती है। स्वामीजी ने अंत में कुटिया भी छोड़ दी थी। ण्ण्ण् बोले इसे भी क्या रखना। परन्तु अंत समय तक प्रकृति के कार्य में सहयोग को राजी थे। गरीब.अमीरए सब के लिए कुटिया का द्वार खुला थाए सभी का सम्मान था। कोई भेद.भाव नहीं था। अनासक्ति थी। परन्तु प्रेम सहज था। कहीं से भी प्रश्न आया उत्तर तत्काल था। चन्द्रधर जी शर्मा पूर्व उपकुलपति थे। भारत के प्रसिद्ध दार्शनिक थेए ण्ण्ण् वे प्रश्न पूछते जाते थे. स्वामी जी शांत भाव से एक या दो वाक्य में समाधान करते चले जाते थे। ण्ण्ण् वहां सर्वज्ञाता इस बात की नहीं हैए सब मालूम हैए पर जो जाना चाहिए थाए वह स्पष्ट था। कहा करते थे. अनंत के पुस्तकालय से उत्तर अपने आप आ जाते हैंए ण्ण्ण् मैं प्रयास नहीं करताए ण्ण्ण् नही आताए चुप रहता हूं। यही वास्तविक अंतःप्रेरणा होती है।
श्रियां पादुका
उनकी पादुकाएं ही उनकी संपत्ति है।
संतों के पावं पखारे जाते हैंए पर जो सिद्ध हैंए वे अपने पावं तक भी छूने नहीं देते। ण्ण्ण् उनकी इतनी भी आकांक्षा नहीं है। हम सब लोभ के दास हैं। लोभ हमारी सवारी करता है। वह हमें चलाता हैए हम चलते हैं। पर जो सिद्ध हैंए जो जाग्रत हैंए वहां संपत्ति भी उनकी अनुयायी है। वह चलते हैं। संपत्ति पीछे.पीछे आती है। वह उनकी पादुका है।
स्वामी जी कहा करते थे. साधारण पुरुष शरीर से कार्य करता हैए जो बुद्धिमान हैए वह बुद्धि की शक्ति से कार्य करता हैए पर जो अंतर्मुखी हैए उसका संकल्प मात्र कार्य करता है। वह उदाहरण दिया करते थे। सब छोड़ने के बाद जब बंबई चले गए तो बकानी वाले पहुंचेए वे एक स्कूल खोलना चाहते थे। उन्होंने कहाए आप पधारेए मैंने कहा ए मैं आकर क्या करूंगाए आग्रह हुआ तो आया स्कूल के लिए लाखों रुपये की भूमिए दानदाता सेए दान में दिलवाईए लगभग छहः लाख रूपये की राशि शाला को उपलब्ध करवा दी। वापस अपने उस छोटे से थैले के साथ चल पड़े।
उनकी पादुका में ही श्रीए निवास करती है। वहां किसी प्रकार की मालकियत नहीं थी। परमहंस पैसा नहीं छूते थे। स्वामी जी जो भेंटे आतीए लेते थे। रूपये का नोट हैए या सौ का उन्हें पता नहीं था। आया जेब में रखा। सब गए। कुरता उतारा जेब खाली कर दी।
जो भी सामने थाए उसे कहा गिन लोए संस्था में जमा करवा देना। संस्था का सारा खर्चा इस राशि से होता था। स्वयं के लिए वह एक रूपया भी खर्च नहीं करते थे। पैदल चलेए ण्ण्ण् मीलों चलते। टिकिट किसी ने ला दियाए तो बस में बैठ गए। कई बार कंडक्टर स्वयं टिकिट खरीदकर स्वामीजी को अपने साथ गंतव्य स्थान पर ले जाते थे। स्वामी जी कहा करते थे. भय का कारण आसक्ति है ण्ण्ण् आसक्ति संपत्ति से होती है।
ण्ण्ण् तुम जो साथ लाए हो वही साथ जाएगा। मात्र उपयोग या उपभोग ही तुम कर सकते होए अन्यथा नाश तो इसका सुनिश्चित है। संपत्ति शरीर में बह रहे रक्त प्रवाह की तरह है। एक इंच नाड़ी में भी रक्त प्रवाह रूक गया तो शरीर अस्वस्थ हो जाएगा। शरीर में जिस प्रकार रक्त का प्रवाह बिना रूके होना आवश्यक हैए उसी प्रकार समाज में भी। जगत भी शरीर है। यह ब्रह्म का शरीर है। संपत्ति के संग्रह की आदत स्वतः कम होनी चाहिए।
सिक्ख धर्म में जब गुरु.ग्रन्थ का पाठ होता हैए तब उसे मस्तिष्क पर रखकर ले जाते हैं। यह पुरानी परम्परा है। सिर परए ण्ण्ण् पादुका न होण्ण्ण् गुरुवाणी होण्ण्ण् तो अभ्यासी को गति मिलती है। सिद्ध न तो संपत्ति को सहेजते हैंए न उससे दूर भागते हैंए वे रक्त प्रवाह की तरह उसकी निरन्तरता को बनाए रखते हैंए वह होता हैए उसके दबाव से अपने आप को उदासीन रखते हुए रहना।
ण्ण्ण् सवाल उठता हैए वे सिद्ध हुए हैंए वे जाग्रत हैंए उन्हें कुछ भी पाना अब शेष नहीं हैए फिर वे क्यों शरीर धारण किए हुए हैं।
स्वामीजी ने एक बार कहा था.सन् नब्बे के उत्तरार्द्ध में शरीर छोड़ने का सोचा थाए उसके लिए जो अभ्यास हैए वे करने शुरू कर दिए थेए परन्तु फिर लगाए अभी कार्य शेष हैए सवाल था कौन सा कार्य शेष रह गया है। जो सिद्ध हैए उनकी हर श्वास उनकी अपनी नहीं होती है।
शास्त्र कहता है. ष्परेच्छा चरणायष्. परात्पर की अभीप्प्सा ही उनका आचरण है। वह जो अदृश्य हैए जो ब्रह्म हैए जो सागर हैए बूंद उसमें तो हैए पर उसकी अनुभूति नहीं है। ण्ण्ण् शास्त्र कहता है. ईश्वर का वास सब जगह हैण्ण्ण् पर हैए वह पास ही हैए पर उसकी अनुभूति नहीं है। सिद्ध उस अनुभूति में जानना ही नहींए उसमें रहना भी चाहता है। जैसे गुलाब जामुन की चाशनी के बिना रूखा हो जाता है। वह उस अनुभूति में डूबा रहना चाहता है। वही उसका आचरण हो।
यहां सन्यासी के लक्षण नहीं है। सन्यासी शब्द आज भ्रम उपस्थित करता है। ष्सन्यासीष् शब्द आज रूढ़ हो गया है। यह सिद्धावस्था की वर्णना है। जो जाग्रत हैए ण्ण्ण् उनकी विशेषता हैए उनका जीवन जिस लक्ष्य को समर्पित है वह मात्र ष्सियाराम मय सब जग जानीए करहूं प्रणाम जोरि जुग पानी है।ष्
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स्वमीजी के पास रहकर जाना थाए सहिष्णुता और अहिंसा क्या होती हैघ् वे समझाते थे ए आपने डाक्टरेट ले रखी है ए पर क्या प्राइमरी के स्कूल से आपका कार्य अधिक महत्वपूर्ण हैघ् उस एक ही शक्ति को सब अपने. अपने नाम से पुकारते हें ए एक भोपा भी उतनी शक्ति अर्जित कर लेता है ए जितने बड़े संत नहींए कारण है ए उसका अपने ऊपर अटूट विश्वास हैे। उसका मन पूरी तरह से उस क्रिया में डूब जाता है ए तब जो कई बार कहता है ए वैसा घट जाता हेे। मूल कारण एक हीहैंेए मन जो सरसों के दाने की तरह हथेली पर डोलायमान है ए वह नहीं रहे। यही साधन है ए यही ध्यान है। मात्र ग्रंथो पढ़ने से आप वर्तमान में नहीं रह सकते। यह तो हर पल का प्रयोग हें जाग्रत में ए विचारणा में स्वप्न में निरंतर वाच रहे। यही वाच ध्यान कहलाती हें पर यह सिखाने की कला नहीं हेै। यह तो चौबीस धंटे की साधना है ए जो दिखती नहीं ए जो दिखती है वह साधना नहीं ए अहंकार ही हे।
यह सिद्धावस्था की वर्णना है। जो जाग्रत हैए ण्ण्ण् उनकी विशेषता हैए उनका जीवन जिस लक्ष्य को समर्पित है वह मात्र ष्सियाराम मय सब जग जानीए करहूं प्रणाम जोरि जुग पानी है।ष्
स्वामीजी मानस की इस अर्धाली का अपने प्रवचनो में उल्लेख करते थे ए हम उस परमात्मा को संसार में नहीं देख पाते। अपनी. अपनी धारणाओ ंमें ही देखते हैं।
ण्ण्ण् सारे.संसार को प्रणाम है। सब वही हैए जो स्वयं में जगत कोए और जगत में स्वयं को देख रहा है। वह जगत से पार चला गया है। ण्ण्ण् वहां उसकी अभीप्साए कामनाए निःशेष हो गई है। पाना अगर किसी को है तो क्या वह दूर हैघ् पर जो दूर ही नहीं है। तथा पाना भी नहीं रहा हैए वहां पर ष्परेच्छा चरणाम्ष् की अनुगूंज शेष रहती है। ण्ण्ण् मात्र जो ष्वहष् हैए ष्वहींष् एक मात्र पथ हैए वही यात्रा हैए वही लक्ष्य है।
यहां आने के पूर्वए स्वामी जी कहा करते थे. दो ही बातें याद रखनी है। जैसे दवा के साथ पथ्य दिया जाता हैए उसी प्रकार ष्वर्तमानष् में रहने की कामना के साथए अभ्यास के लिए ष्न निन्देए न वन्देष् का ध्यान रखो। न तो अपनी आत्मप्रशंसा हो न पर निंदाए दोनों से बचो।
शास्त्र कहता है. ष्ष्पदापवाद मुक्तो जीवन्मुक्तष् जो दूसरों की निंदा से रहित हैए वह जीवन्मुक्त हैए यहां आकर दूसरा स्वतः गिर जाता है। दूसरा ही नही हैंए दूसरे का चिन्तन ही पराधीनता हैए जब हम अपने नजदीक आते हैंए तब दूसरा स्वाभाविक रूप से छूटता चला जाता हैए अभ्यासी को ष्आत्मप्रशंसा और परनिंदा दोनों से बचना चाहिए।
शिवयोग निद्रा च खेचरी मुद्रा च परमानन्दी।
निर्गुण गुणत्रयम्।
विवेक लभ्यम्।
मनोवाग् अगोचरम्।
निद्रा में भी जो शिव में स्थित है और ब्रह्म में जिन का विचरण हैए ऐसे वे परमानन्दी हैं।
निद्रा में भी वह परमहंस ब्रह्ममें ही लीन है।
वे तीनों गुणों से रहित हैं।
ऐसी स्थिति विवेक द्वारा प्राप्त की जाती है।
यह विवेक मन और वाणी का अविषय है।
शिव योग निद्रा
वे जो नींद में भी जगे हुए हैं। स्वामी जी ने अनंत यात्रा में कहा है. ष्वह जो जाग्रतए स्वप्न तथा सुषुप्ति में एक्य का अनुभव करता हैए ण्ण्ण् वह तीनों अवस्थाओं में सहज हैए एक रस हैए ण्ण्ण् उसकी निद्रा भी स्व में ही होती है।
वर्षोें देखाए स्वामी जी एक ही करवट सोते थेए कभी उनका करवट बदलते नहीं देखा। रात तीन बजे के आसपास नींद टूट जाती थी। उठकर शांत बैठे देखाए ण्ण्ण् बाद में लेटे रहते थे। बंबई में आंख का आपरेशन हो रहा था। चिकित्सक नेए एनेस्थिेटिया लगा दिया था। उसे लगाए स्वामी जी होश में हैंए ण्ण्ण् उसने अपने सहायक से पूछाए ष्आपने स्नेस्थेनिया तो लगा दियाए मरीज तो होश में हैए वह भी चौका। तब स्वामी जी ने कहा था. ष्आप अपना काम करें ण्ण् वह तो लगा दिया हैए आप उसकी फिक्र न करंे।श्ए
चिकित्सक भी अचंभित थेए ण्ण्ण् ष्यह क्या हुआघ् बाद में उन्होंने स्वामी जी से पूछा थाए तब उन्होंने कहा थाए आपरेशन आंख का हो रहा था। मैं देख रहा थाए आपकी बातें भी सुनीं।
उनके लिए यह आश्चर्य था। पर जो सिद्ध हैए वे जागे हुए हैं। उनकी निद्रा भी जाग्रति में है। देह विश्राम करती हैए चैतन्य जाग्रत है। ण्ण्ण् वे निरंतर परमानंद में है।ए ष्हठयोग प्रदीपिकाष् में शाभंवी मुद्रा के बारे में कहा जाता है। वहां दोनों नेत्र खुले हैंए ण्ण्ण् पर दृश्य नहीं हैए ण्ण्ण् दर्शन नहीं है। ए ण्ण्ण् जो जगत हैए वही अनुपस्थित हो गया हैं ण्ण्ण् जहां जगत न भीतर हैए न बाहर हैए वहां मात्र आनंद ही रहता है। परमानंद जहां न सुख है न दुख है। कार्य हो गयाए सुख हुआए नहीं हुआ दुख हुआ। दूसरा है पराश्रय है। वह अभी कारण है। पर जहां आनंद हैए वहां दूसरा ही अनुपस्थित हो गया है। अप्रभावी हो गया है। वहीं आनंद है। स्वामी जी एक बार ट्रक में बैठकरए मास्टर भैरूलाल जी के साथ कोटा आ गए थे। मैं चौंका। इस उमर में ट्रक में कैसे चढ़े होंगे। पर वे प्रसन्न थे। बोले. बकानी से ट्रक आ रहा थाए आराम से आ गया।ष्
ण्ण्ण् याद आता हैए जब झालावाड़ में थाए एक बार वे बकानी से आ रहे थे। बस शाम तक झालावाड़ आ जाती थी। मैं लेने गया था। बस आ गई थी। पर वे नहीं आए। चिंता सी हो गई। क्या बात हो गईघ्
ण्ण् बस स्टैण्ड से वापस लौट आया। रात को किंवाड़ खड़काकर देखाए स्वामी जी थेए मैं भी चौंक गया।
पूछा. कहां रह गए थेघ्
वे हंसे। बाद में बताया। तीन धार पर कोई औरत बस में बैठ गई थी। वह बीमार थी। उसने उल्टी कीए सारा पच.अपचा हुआ अन्नए उनकी गोदी में गिर गया। चंद्रभागा नदी पर उतर गए। वहीं नहाए। कपड़े सुखाए। फिर उन्हें पहनकर अब वहां से पैदल आए हैं। कहीं कोई अप्रसन्नता नहीं।
जो सिद्ध हैंए वे सदा परमानंद में है। बाहर क्या घटा हैए उन्हें कोई चिंता नहीं है। वहां चाह ही नहीं है। कोई वांछा ही नहीं है। जहांए चाह नहीं है। वही आनंद है। वहीं अभय भी रहता है।
बकानी में जब गुरुकुुल बन रहा था। तब राजनीतिक लोग विरोध में थे। उन्होंने मोलक्या के लोगों को समझायाए यह कोइ साधु नहीं हैं कोई सिन्धी है। जमीन बेचकर भाग जाएगा। इसको भगा दो। सुबह स्वामी जी कुएं पर नहाने जा रहे थे। बस लंगोट ही थी। कपड़े पास में रखे थे। सेवक पन्ना कुंए से पानी निकालने जा रहा था। देखाए कुछ लोग हाथ में लकड़ियां लिए इधर चले आ रहे हैं। स्वामी जी भी रुक गए। सोचने लगे ये लोग कहां जा रहे हैंए वे लोग पास आएए तो पूछा कहां जा रहे होघ् तो वे चौंकेए तथा लकड़ियां नीचे पटककर पांव छूकर जाने लगे। बोलेए कुछ भी नहीं। तब स्वामी जी ने पन्ना से पूछा. ष्क्या बात हैघ् ण्ण्तब पन्ना ने पूरी बात बताई। स्वामी ने पन्ना से कहा. ष्जब तुम्हें यह पता था तो मुझे तो बता देते। पन्ना ने कहा. उन्होंने मुझसे मना कर दिया थाए गांव में रहना हैए चुप रहना होगा।ष् वहां अभय रहता है। जहां सुख हैए वहां आसक्ति हैए वहां भय है। जहां आनंद हैए वहां अभय है।
शास्त्र कहता है. जो सिद्ध है वे तीनों गुणों से रहित है। वे मुक्त है। जीवन्मुक्त हैं। ष्निर्गुण गुणात्रयम्ष्ष्।
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निर्गुण गुणात्रयम्ष्ष्।
स्वामी जी गीता का एक श्लोक समझाया करते थे.
ष्ष्दैवी ह्येेषा गुणमयी मम माया दुरत्या।ष्ष्
यह मेरी ही माया हैए जो गुणमयी हैए ण्ण्ण् देवी जो देने वाली है। यह तमोगुणी भी है। रजोगुणी भी है। सतोगुणी भी है। इस माया से वही पार जा सकता हैए जो ष्माम्ए ण्ण्ण् जो सोऽहं हैए जो इस माम् की शरण में है। माम हमारा चैतन्य हैए जो सदा हैए जो जाग्रत है। ण्ण्ण् वही हम सबके भीतर हैए हम उसके भीतर हैं। जो इन तीनों अवस्थाओं में एक्य का अनुभव करता है। वह जो प्रणव का चौथा पांव हैए जो अदृश्य है। जिसे शास्त्र तुरीयावस्था कहते हैं। वही स्वभाव है। ष्स्वष् जो हैए उसकी अवस्था है।जो उसको समर्पित है एवही पार जासकता है।
यहॉं यह समझना अत्यधिक कठिन हो जाता हैए हम लोग वर्षों से एक ही संत के सानिघ्य में रहे। बाहर का दबाब थाए शुरु में जब जुड़ाव हुआ तो झालावाड़ में मुश्किल से दो चार परिवार ही थे ए जो कभी मिलने आतेए या स्वामीजी वहाँ जाते। बकानी से भी कभी कोई मिलने आता था। गुरुकुल बंद हो चुका था। स्वामीजी जब झालावाड़ आतेए पुस्तकालय से पुस्तकें मंगवा लेते। सवाल उठता थाए साधारण से सन्यासी के पास भीड़ जमा हो जाती हैए पर यहॉं तो मात्र मौन ही था। वे अपनी ओर से किसी को भी आकर्षित करने का कोई प्रयास नहीं करते थे।
जाना वहॉं जो भी आता थाए मानो उसकी समस्या अपने आप हल होगई हो। साधारण से जन से वे खुलकर मिल लेतेए किसी विशिष्ट व्यक्ति के आने के बाद कई बार वे एक शब्द नहीं बोलते। बहुत पूछने पर यही कहतेएश् उसकी मॉंगे बहुत ज्यादा हैंए या उसका संग्रह बहुत हैए पर वर्षों के बाद जानाए उनकी अपनी कोई इच्छा ही नहीं थी। वहॉं विचारए संकल्प और भावना तीनो एक ही रह गए थे।
वे कहते थेए यह प्रकृति की इच्छा है। तब जाना तीनो गुणो से अलग कैसे रहा जाता है। कामिनी और कांचन दोनो का ए श्रेय और प्रेय का वहॉं कोई आदर नहीं था। आज उनके महानिर्वाण के बाद जो उनकी कुटिया पर अपनी लाल बत्ती की गाड़ी में पुलिस के पहरे में सन्यासी आते हैंए जब सहज ही श्तीनो गुणों से मुक्त कैसे रहा जाता हैए समझ जग जाती है। वे माला पहननाए अपने पॉंव छुआनाए तथा अंगूठे में रोली लगाना पसंद नहीं करते थे।
कहा करते थेए सतोगुण का अहंकार अधिक प्रबल होता है।
यह भी बुद्धि का ही हिस्सा है।
श्माम एव प्रपद्यंतेश्ए इससे परे मात्र विवेेक ही ले जाता है।
श्विवेक लम्यम्एश् ऐसी अवस्था विवेक के द्वारा प्राप्त की जाती है। विवेकए बुद्धिमत्ता नहीं है। विवेक सद्.असद में भेद करने की योग्यता नहीं है। विवेक अलौकिक है। विवेक शक्ति है। स्वामीजी कहते हैं. जब मन अत्यंत शुद्ध हो जाता हैए जहां लेश मात्र भी विकार नहीं होता हैए वहां वह शुद्ध मन विवेक में लय हो जाता हैए वही विवेक बन जाता है।
सतोगण भी विकार ही है।
श्अनंतयात्रा श् में स्वामीजी ने कुंभ के द्वारा नीलकंठ से कहलाया हैए श्अब तुम्हारा विवेक जागृत हआ हैए हो सकता हैए इसके बाद मेरा अस्तित्व ही न रहेश्ए गुरु का अस्तित्व शिष्य के विवेक जागरण तक सीमित है।
विवेकानंद के विवेक जागरण के बाद परमहंस की बीमारी अचानक पैदा हुईए और बढ़ती ही चली गई। गुरु का जीवन तीनो गुणो से परे हैए पर वह है। वह अपने अस्तित्व में अकारण नहीं है। यह अवस्था विवेक जाग्रति से ही प्राप्त होती है।
ण्ण्ण् विवेक की आंखए जाग्रति है। स्वामीजी कहा करते हैं एश् अभ्यास एक ही है। ण्ण्ण् मैं तो कहूंगाए चौबीस घण्टेए सतर्कता रहे। मन पर निगरानी रहे। हम होश में रहंे। जो भी क्रिया होए मन वहीं रहे। शुरू.शुरू में कठिनाई आती है। बस एक बार सध गयाए तो फिर मन की स्वाभाविक अवस्था यही हो जाएगी। ण्ण्ण् मन पर निरंतरए ण्ण् कॉन्सटेन्टए निगरानी हो। जिसे कृष्णमूर्ति कहा करते है. अवेयरनेस।श्
शास्त्र कहता है. ष्ऐषां ब्राह्मी स्थितिण्ण्ण् जिसकी वर्णना नहीं हो सकती है। जिसे विवेक की प्राप्ति हो जाती है। वहां मन और वाणी इसे व्यक्त नहीं कर पाते हैं।़़़़़़़
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अनित्यं ज्जगद्यज्जनित स्वप्न जगभ्रगजादि तुल्यम्
तथा देहादि सधातम् मोह गणजाल कलितम्।
तद्रज्जुस्वप्नवत् कल्पितम्।
विष्णु विध्यादि शतिभिधान लक्ष्यम्।
अंकुशो मार्गः।
जगत अनित्य हैए उस में जिस ने जन्म लिया हैए वह स्वप्न के सन्सार जैसा है। और आकाश के हाथी जैसा मिथ्या है।
वैसे ही कामनाएॅंए कल्पनाएॅंए यह शरीर और इन्द्रियों के संयोग ही हैं। मोह गुणों से युक्त है। यह सब रस्सी में भ्रान्ति से कल्पित किए सर्प के समान मिथ्या है।
विष्णुए ब्रह्मा आदि सैकड़ों नाम वाला ब्रह्म ही लक्ष्य है।
अंकुश ही मार्ग है।
जगत अनित्य है
हमारा सारा जोर इस जगत की सत्यता पर हैए बुद्ध ने बहुत पहले कहा थाए जगत क्षणिक हैए क्षणिकवाद बुद्ध के दर्शन का आधार था। पर इस की व्याख्या गलत हो गई। क्षण ही सत्य सा भासित होता हैैए पर वह भी निरन्तर बदल रहा है। यह जगत निरन्तर परिवर्तनशील प्रक्रिया में है। यहाँ हमारा सारा प्रयोजन इसे ष्सत्यष् बनाए रखने में रहता है। वेदान्त में इसे ष्प्रतिभासिक सत्यष् ए तथा व्यवहारिक सत्य कहा है। एक सपना है। दूसरा हैए पर भासता हैए वह निरंतर परिवर्तनशील हैं। इस की व्यावहारिकता यानी व्यावहारिक हैए यह भी स्वप्न वत ही है। । स्वप्न में जो देखा थाए वह वहीं तक सत्य लग रहा थाए पर नींद खुलते ही सब शून्य में खो जाता है।यही स्थिति व्यवहारिक सत्ता कहा हैए यह निरंतर बदल रही है।
भारतीय दर्शन ने इसी लिए इसे ष्स्वप्नष् माना है। यह दीर्घ स्वप्न है। राजा जनक की कहानी स्वामी जी सुनाया करते थे। उन्हों ने एक दिन स्वप्न में अपने आप को भिखारी रूप में पायाए जो दाने.दाने को मुहताज है। तभी एक सॉंड आता हैए इन्हें उठाकर दूर फैंक देता है। नींद खुल जाती है। वे अपने स्वप्न का अर्थ सबसे पूछते हैं। तब अष्टावक्र ने उन्हें स्वप्न का अर्थ समझाया थाए कि राजन यह जगत भी दीर्घ स्वप्न है।
हमारी चिन्ता यही हैए हम चाहते हैं। यह स्वप्न स्थाई हो जाएए जो हम ने बड़ी मेहनत से इसे पाया हैए वह हमेशा बना रहे। पर यही नहीं हो पाता है। एक दिन अचानक एक धक्का लगता है। रेत के महल की तरह हमारा सोचा हुआए बनाया हुआ एसपना ढह जाता है। जगत का स्वभाव ही परिवर्तनशील है। संसारए जहाँ सार ही नहीं है।
पर रहना तो हैए जाग कर कहाँ जाना हैघ्
इसी समझ के साथ यहाँ रहना है कि जो हैए वह निरन्तर एक जैसा रहने वाला नहीं है। इस में निरन्तर परिवर्तन आ रहा है। यह एक प्रवाह है। हमारी चिन्ता इसी कारण से है कि हम इसे यथावत बनाए रखना चाहते हैं। इस का मतलब यह नहीं है कि हम अकर्मण्य हो जाएंए यह जानते हुए भी कि सब परिवर्तनशील हैए जो क्षण अभी है उसे मूल्यवान बना कर रखना है। यह हमारे हाथ मेें है।
यही जीवन का दूसरा सत्य है ए मृत्यु ही पहला सत्य है ए वह अटल है ए दूसरा यही है ए हमें अपने जीवन को दिशा देने की पूर्ण स्वतंत्रता हे। हम चाहें नरक में ले जाएॅं ए चाहे स्वर्ग में ले जाएॅं।
जगत स्वप्नवत है। इस का अर्थ यह नहीं कि आप बाहर की सत्ता की अवहेलना करें। यह तो स्वप्नवत है। परमहन्स एक कहानी सुनाया करते थे कि पागल हाथी के सामने एक भक्त आगया । वह सबमें भगवान देख रहा था। वह उस हाथी को देखकर गजेन्द्रमोक्ष का पाठ करने लग गया। वह उस हाथी में भगवान देख रहा था। महावत उसे देखकर चिल्लायां। उसे हट जाने को कहा।ण्ए पर वह नहीं हटा। तब हाथी ने उसे हटा कर दूर फैंक दियाए वह घायल हो गया। महावत ने यही कहाए जिस भगवान को तू हाथी में देख रहा था ए उसी ने ही मुझे एतुझसे हट जाने को कहा था।पर वह तो पागल हाथी में भगवान देख रहा था।घायल होगया।
विवेकानंद जब गुजरात में थेए तब एक बार वाममार्गियों ने उनकी बलि देने के लिए एउन्हें कैद कर लिया था। उन्होंने एक लड़के के द्वारा राजा के पास अपना संदेश भिजवाया था। राजा ने उन्हें छुड़वाने के बाद यही कहा थाए अब वे इसप्रकार यात्रा करना बंद करदे। पहचान पत्र के साथ ही कहीं जावें। व्यवहारिक सत्ता हैए पर वह निरन्तर परिवर्तनशील है।
यहीं विवाद उठ खड़ा होता है।
संसार स्वप्नवत हैए स्पष्ट हैए असीम हैए निरन्तर परिवर्तनशील हैए तब इस में कैसे रहा जाएघ्
स्वामी जी कहा करते थे ष्वर्तमान में रहोए वर्तमान ही वह रसायन हैए जहाँ मन का कार्य.व्यवहार कम से कम होता चला जाता है।ष्
विष्णु विध्यादि शतिभिधान लक्ष्यम्।
अंकुशो मार्गः।
विष्णुए ब्रह्मा आदि सैकड़ों नाम वाला ब्रह्म ही लक्ष्य है।
अंकुश ही मार्ग है।
शताधिक लक्ष्यम्
वह जो अनन्त हैए उस के हज़ारों सालों में हजार नाम हो गए हैं। तुम इस प्रपंच में मत पड़ो। लक्ष्य पर दृष्टि रहे। यह लक्ष्य ब्रह्म हैए तुम्हारा आत्म हैए तुम्हारा अपना अस्तित्व हैए नाम के चक्कर में मत पड़ो। लक्ष्य ही स्पष्ट रहना चाहिए। किस देवता की कब पूजा एकैसे करें। पुरोहित वर्ग ने मति भ्रष्ट करदी है। नाना चैनल ए और नाना वेशधारी बाबा जिनका उनका अपना लक्ष तो स्पष्ट हैए पर वे वैचारिक मूढ़ता फैलाए हुए हैं।
और अन्तिम बात
स्वामीजी समझाते थेए ष्अंकुशोमार्गष् वहाँ जाने का मार्ग मन पर नियन्त्रण है।आप वर्तमान में हैं ए रहें ए यहॉं कोई क्रिया तो हें नहीं एन कोई मंत्र जाप ए नाम जप है। न प्रार्थना ए न पूजा ।
जब भी कोई विचार आता है ए मन उसें साथ बह जाता हें यह भटकाव ए या तो अतीत में होगा या भविष्य की किसी कामना में।
यहॉं बस इस मन पर सतर्कता रखनी हेै। निरंतर वाचए यही वर्तमान में रहना हे। आपने बोला आप वर्तमान से हट गए ए आपने सोचा आप वर्तमान से हट गए। इस वर्तमान को कोई आज तक परिभाषित नहीं कर पाया। यह तो मात्र अनुभूति है निर्विचारता ही वर्तमान है। ।
आप दिन भर बाहर की दुनिया में उलझे रहते हें और यह भी कहते रहते हें ए वर्तमान में कैसे रहा जाएघ् पर क्या यह कथन कभी अपने जीवन की अनुभूति बन पायाघ् यह तो अपने ही द्वारा अपने मन की निगरानी हैए मन पर निरंतर निगरानी रहे ए अनावश्यक भटकाव बन्द हो जाए। बाहर का आकर्षण प्रबल हे। आप पद ए सम्मान ए धन की लालसा छिपाए हुए ही अपने आपको कर्मशील मानते हैं।
तीसरा बहुत बड़ा सत्य हमारे कर्म की दिशा की ओर ही है ए हमारे कर्म किसी न किसी गरज से ही प्रेरित रहते हे। स्वाभाविक ए सहज अपेक्षा से नही रहते। यह काम करेंगे ए यह लाभ होगा ए लाभ और लोभ ही हमारा रास्ता तय करते हैं। यही सजगता और सतर्कता रहे ए ं यही ध्यान हेैंं वर्तमान में रहते ही अनावश्यक भटकाव अपने आप कम होता चला जाता है।
यही ध्यान जब गहरा होता जाएगा ए मन अपने आप अंतर्मुखी होगा। यहॉं तक संकेत संभव है। पर मन कभी भी न तो बाहर से सिमिटना चाहता है एयह उसी प्रकार से है ए आप झील के किनारे बैठे हैं ए झील शांत है ए पर एक पत्थर गिरा ए पचास लहरें अचानक बन जाती हे। इसी वेग को झेलना ए ही तितिक्षा है। पहले सिमटे फिर भीतर के वेग को अप्रभावित रहकर झेलना है।
हम जब बाहर की प्रतिक्रिया से ही बच नहीं पाते तब मन भीतर से कैसे सिमिटेगाघ्
ैं मन का कामए फैलना और वृत्त्यिों को फैलाना हैए एक प्रकार से इन्द्रियों को निरन्तर विषयों में उलझाए रखना है। विचार ही विकार है। विचार के बार.बार चिंतन से संकल्प बन जाता है। फिर विचार और संकल्प के संयोग से उसी प्रकार की भावनाएॅं पैदा होजाती हैं। भावनाओं के दृढ़ होने से स्वभाव बन जाता है। विकार जब आता हैए वह पहले भीतर फैलता हैए फिर बाहर फैल जाता है। उसे रोकना है।
हाथी पर महावत नियन्त्रण अंकुश से पाता हैए वह उस के मस्तिष्क पर नियन्त्रण करता है। वही हमारी स्थिति है। हमारा मन मस्तिष्क में ही रहता है। वहाँ जो चीज़ें अस्त.व्यस्त पड़ी हैं वे सही रहेंए यह नियन्त्रण ही मन का नियन्त्रण है। यहाँ सब परिवर्तनशील हैए जो कल थाए वह आज नहीं हैए और जो आज हैए वह कल नहीं रहेगाए इस को जो समझ लेता हैए वह अंकुश के साथ अपने मार्ग पर चल देता है। मन का व्यवहारिक स्थान मस्तिष्क ही है ए वहीं से मन नियंत्रित होते ही नीचे उतरता है।
.ः.ः.19
शून्यं न सप्रेतः।
परमेश्वर सत्ता।
सत्यसिद्धयोगो मठः।
अमरपदम् न तत् स्वरूपम्।
आदिब्रह्म स्व.संवित्।
अजपागायत्री विकारदण्डो ध्येयः।
मनोनिरोधिनी कन्था।
शून्य सप्रेत नहीं है।
परमेश्वर की सत्ता है।
सच्चा और सिद्ध हुआ योग सन्यासी का मठ है।
उस आत्मस्वरूप के बिना अमरपद नहीं है।
आदि ब्रह्म स्व.चेतन है।
अजपा गायत्री है। विकार.मुक्ति ध्येय है।
मन का निरोध ही उन की कन्था है।
शून्यं न संकेतः परमेश्वर सत्ता।
वर्तमान में तभी रहा जाता हैए जब मन विचार रहित हो जाएए ण्ण्ण् स्वामी जी कहा करते थे. जो आत्मा भीतर हैए वही बाहर हैए बाहर वह परमात्त्मा हैए ण्ण्ण्आकाश त्तव एक ही हे। आकाश ही आधार है। दोनों के बीच का भेदए यह मन और इसके विकार हैंए ण्ण्ण् निर्विषय वा चित्तंण् चित्त का विषयों से रहित हो जाना ही ध्येय है। ण्ण्ण् शून्य चित्त का होना हैए जहां विचार नहीं होंगेए वहां विकार भी नहीं होंगे।
जो अभ्यासी हैए वह शून्य की तरफ जाता है।
यहा गिॅंनती नहीं हैए जो भी संग्रहित हैए उसकी मात्रा हैए उसका हिसाब है। पर जब हैेए तो सही ए पर कोई हिसाब नहीं हैए यह कांदे का प्याज का पूरा छिल जाना है। पर खाली होना हैंए उसे फिर क्या कहा जा सकता हैघ् बाहर कुछ भी आता कहां से हैए जाता कहां पर हैए उस परम की शून्य से अधिक कोई पहचान नहीं है।
जो सिद्ध हैए वह वहां पूर्ण पाता है। परमात्मा ही पूर्ण है। साधना की चरम परिणिति शून्यता हैए प्राप्तव्य पूर्णता है।
शून्यता उस का संकेत ही नहीं हैए वह तो परमेश्वर की सत्ता है। स्वामी जी कहा करते थेए विवेकानंद ने शून्य पर भाषण दिया था। शून्य यहां की उपज है। वहां द्वन्द नहीं है। वह निर्द्वन्द्र है। जगत में द्वन्द है। मार्क्स कहता हैए जगत में भौतिकवादी द्वंद है। पर परमात्मा का संकेत शून्य सत्ता है। जहां निर्द्वद है।
ण्ण्ण् वही शून्य हैए वही पूर्ण है। अभ्यासी के लिए शून्य कहा जाना ही सारगर्भित है। ण्ण्ण् उसे अपने चित्त की वृतियों का निरोध प्राप्त होता है। यह शून्यता की ही स्थिति है।
ण्सत्य सिद्ध योगो मठः
ण्ण् जो सिद्ध हैए जहॉं वह है एवही उनका आश्रम है। आश्रम में वे नहीं रहते। जहां वे हैंए वहीं उनका गुरुकुल है। स्वामी जी कहा करते थे। मेरी एकांत में जीने की इच्छा हैएएकांत में ही मरने की इच्छा हैए जब मैं मरूं तो उस जगह एक पत्थर भी नहीं लगाया जाएए वे अंग्रेजी की एक कविता सुनाया करते थे। ण्ण्ण् कुटिया से ही उन्हें कोई मोह नहीं था। सरकार को पूरा गुरुकुल सौंप चुके थे। सरकार ने कुटिया उन्हें दे रखी थी। वे रहे। वे उसकी चाबी भी सरकार को भिजवाकर चले गए थे। बस एक झोला उनके पास था। न पैसाए न बैंक बैलंेसए कुछ भी नहीं। हांए जहां वे रहते थेए ण्ण्ण् वहीं उनका आश्रम आ जाता था।
उनकी यही सीख महत्वपूर्ण थी ए वे कहते थे कहीं भी आलंबन मत रखना ए जहॉं तुम हो ए वही ंमैं हूॅं ए वहीं परमात्मा है ए भूलकर भी कभी संशय नहीं। यहीं आत्मकृपा है।
शास्त्र कहता है. ष्सत्य सिद्ध योगो मठः.
सच्चा और सिद्ध हुआ योग ;सन्यासीद्ध मठ है।
सच्चा और अनुभव ही सन्यासी का योग है। वहां शास्त्रों का वाचन नहीं है।
एक.एक शब्द अनुभव की पूंजी से बाहर आता है। स्वामी जी के शब्दों में कहीं बदलाव नहीं था। जो कहाए वह सत्य था। बहुत कम कहाए मात्र मौन ही रहे। यही उनकी देशना है ए कहीं किसी प्रकार का आडंबर नहीं ए कोई प्रदर्शन नहीं ए जहॉं सुगंध होगी ए वहॉं की हवा अपने आप दूर. दूर तक चली जाएगी।
श्अजपा गायत्री विहार दंडो ध्येयश् अजपा गायत्री है। विकार.मुक्ति ध्येय है।
ण्ण्ण् मनो निरोधनी कन्था
.मन का निरोध ही उनकी कन्था है।
ण्ण्ण्
काव्य शास्त्र में लक्षण ग्रन्थ लिखे गए हैं। कविता में सौंदर्य वृद्धि के लिए अलंकार होते हैं। वहाँ उनकी पहचान बताई गई है। संत की पहचान यही हैए जिसके पास जाते ही मन के विचार शांत हो जाएं। उनके पास निरंतर विराट से जुड़े रहने के कारणए विशेष चुंबकीय आकर्षण रहता है। ण्ण्ण् अभ्यासी को उनके सानिध्य में शांति उपलब्ध होती है।
लक्षण ग्रन्थ कहते हैं. वहां भाषा निरंतर मौन में समाहित हो गई है। गायत्री वेद मंत्र हैए वह जपी जाती है। बुद्धि जब अत्यंत शुद्ध हो जाती है। शत प्रतिशत विकार रहित हो जाती हैए तब वह विवेक में बदल जाती है या तभी विवेक की जाग्रति होती है।
ण्ण्ण् गायत्रीए अजपा होती है। जपी नहीं जाती हैं वाणीए का पहला स्तर बेखरी का हैए यहां उच्चारण है। दूसरा स्थान होठ हैंए पर शब्द नहीं है। मन ही मन जप है। तीसरा कंठ हैए वहां मात्र ध्वनियां हैए जिव्हा भी शांत है पर जप है। इसके नीचे मात्र स्पंदन हैए मौन में ध्वनियां विसर्जित हो गई हैंए जहां विचार ही निःशेष हो गए होए वहां विकार भी छूटते जाते हैं। विचार ही विकार है। उस निर्विचारता मेंए अभ्यासी ण्ण् अपने अभ्यास की पूर्णता पाता हैए ण्ण्ण् उसे विकारों से स्वतः छुटकारा मिल जाता है। यहां कुछ भी छोड़ा नहीं जाताए जिसे छूटना होता हैए वह स्वतः छूटता जाता है।
यहॉं वाक् परा में ही ढल जाती हैए तब मन वाक में तथा वाक मन में विलीन हो जाती है।
योग यहीं प्रारम्भ होता है।
अमरपदम् न तत् स्वरूपम्।
उस आत्मस्वरूप के बिना अमरपद नहीं है।
उसे पाए बिना कोई अमरपद नहीं है। कोई अमृत नहीं है। मृत्यु साथ रहेगी। जब तक मन हैए जन्म भी हैए मृत्यु भी हैं। मन के पार ही अमृत है।
आदिब्रह्म स्व.संवित्।
आदि ब्रह्म स्व.चेतन है। उसे जानने के लिए पर की कोई जरूरत ही नहीं है। वह स्व प्रकाश है।
स्वामीजी कहते थेए बचवपन से ही आदत थी एजब सोता था ए एक प्रकाश की बीम दिखाई पड़ती थी एवह दोनो भौंह के बीच आकर ठहर जाती थीए मैं गहरी नींद में चला जाता था। दूसरो से पूछा थाए क्या उनको भी नींद ऐसे ही आती हैए उन्होंने मजाक उड़ाया। बाद में इन्दौर में स्वामी राम ने बताया था। यह योग की सिद्धि होती है।
बाद में जब ओंकारेश्वर गया हुआ थाए तब एक रात लौटते समय ए रास्ता बहुत खराब थाए पत्थर ही पत्थर थेए तब अचानक यह बीम बाहर जाती हुई दिखीए जहॉं भी पॉंव पड़ता थाए एक प्रकाश का गोला सामने आजाता थाए मैं उसी के सहारें उपर तक आगया था।
बाद मंे हम सभी ने देखाए जब उनकी ऑंखों की रोशनी बहुत ही कम होगई थीए वे रात को बिना बत्ती जलाएए अपने आप बाथरूम चले जाते थे।
वे बिना ग्रंथ खोलेए सीधा ही उत्तर दे देते थे। वे शास्त्र का उत्तर स्वयं अपने व्यवहार से देने में समर्थ थे। बाद में स्वामीजी ने कहा था ए अद्वैत में वर्णित यही संवित साधना है।
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अजपागायत्री विकारदण्डो ध्येयः
मनोनिरोधिनी कन्था।
अजपा गायत्री है। विकार.मुक्ति ध्येय है
मन का निरोध ही उन की कन्था है।
स्वामीजी कहा करते थेए जिसे गाया जासकता हैए वह गायत्री है। पर जब वाक मन में लीन हो जाती है। वहॉं अजपा रह जाता हैं। जहॉं ए दो वस्तुएं रगड़ें तो आहत घ्वनि हैए पर जहॉं एक ही हैए कोई संघर्ष नहीं हैए वहीं अनाहत है।
अजपा का अर्थ हैए अब जपा ही नहीं गया। बैखरी का शब्द सुना जाता हैए मघ्यमा में सतह पर हैए पश्यंति में स्पंदन हैए ये तीनो तल गए जो शेष रहा वहीं अंतस का द्वार है।
अजपा गायत्री ही ब्रह्मनाद है। पूज्य स्वामीजी ने प्रारम्भ अनहद नाद के बारे में समझाया थ ए यह एक बार अने के बाद जाता नहीं। उन दिनो मूलचन्द जी दरवेश हठयोगी साधक ए डाह्या भाई हर इतवार को गुरुकुल आते थे।वे नाद सुनने के लिए तरह. तरह के साधन अपनाते थे।
हठयोग में अनहद नाद की बहुत प्रशंसा हे। स्वामीजी ने समझाया था ए इसके लिए किसी खटकर्म की कोई जरूरत नहीं। बस मन को अधिक से अधिक वर्तमान में रखने का प्रयास करो। तब विचार कम होते जाएंगे। तब विचार भी अपने आप कम हो जाएंगे।
सुबह उठकर ए और रात को कुछ देर शांत बैठो ए मन से मन का अवलोकन करो यहीए ध्यान है। बस यही सतर्कता रहे ए मन चाहे अच्छा विचार हो या बुरा ए उसके साथ बहे नहीं। अपने आप मन ज्योही शांत होने लगेगा ए तब नाद सुनाई देने पड़ता हेै। यह एक अनवरत उठने वाली सहज ध्वनि हेै। यह इस बात की सूचना है कि तुम्हारा मन स्थिर होने लगा है। इससे मन की शक्ति बढने लगती है। वाक सिद्धि हो जाती है।
पर यह प्रारम्भ हैए बस जब मन भटके अपने नाद पर ध्यान ले आओ ए मन अपने आप शांत हो जाएगा।
योगियों ने इस पर बहुत ग्रंथ लिखें है।
साधना में होश संभाले रखना बहुत कठिन है ए जरा सी मानसिक शक्ति बढ़ते ही अहंकार प्रबल हो जाता हैं । अहंकार पतन बहुत जल्दी करा देता है।अगर सम्हल गए तो इससे अपने प्रति आत्मविश्वास बढ़ता हें हमारे भीतर संकल्प की निर्मिति होती हे।
अजपागायत्री विकारदण्डो ध्येयः।
इस अजपा गायत्री का प्रसाद विकारों से मुक्ति है। जब विचार गिर जाते हैंए वहीं विकार भी गिर जाते हैं।
मनोनिरोधिनी कन्था।
मनो निरोध की कन्थाः मन का निरोध ही उनकी ज्ञान गुदड़ी हैए जो कंधे पर लटकी हुयी है। वहां कोई आसक्ति नहीं है। न ही कोई दूसरा है। जहां तक दूसरा हैए वहां तक मन ही है। स्वामी जी कहा करते हैंए अभ्यासी का अभ्यास चौबीस घंटे होना चाहिए। मन पर गहरी सतर्कता रहेए अनवरतए तेल की धार की तरहए टूटने नहीं पाएए ण्ण्ण् यही अभ्यासी का ध्येय है।
सच है ए मेैए चला ए पर सांप. सीढ़ी के खेलकी तरह जिन्दगी की चौसर पर कुछ पासे गलत पड़ गए ए अहंकार का सांप जो सबसे ऊपर था वह डस गया ए मैंने इसी जीवन में अपनी जीवन यात्रा को उठते.गिरते देखा ए वह ब्रह्मनिष्ठ गुरु का दिव्य प्रसाद ही था ए जो अंतस में अचानक जगा। मन का निरोध ही ज्ञान गूदड़ी है ए बीन भी हूॅं तुम्हारी रागिनी भी हूॅं ए जाना ए बस वह वंशी जो कान्ह के होठों पर रखी हुई एवही सार्थक हेै। उस पौंगरी का गूदा ही गिर जाता है ए वह वंशीी बन जाती है।
स्वामीजी सारी उम्र यही संकेत करते रहेए वे एक महान शिक्षक ही थे ए उनके सानिध्य में ही गीता का दूसरा अध्याय जाना ए जब तक चित्त अशांत है ए कलुषित है ए अहंकार का सर्प हर कदम पर लीलने का तत्पर है। चित्त की शुद्धि ही गुरु प्रसाद हेेै।
तब जो मिलती है ए वह मन के शांत होते ही अपने कंधे पर ज्ञान गूदड़ी ही हेै। स्वामीजी के पास न कोई ग्रंथ था ए प कोई पूजा ए उपासना पर जीवन की अंतिम संध्यातक उनकी ज्ञान गुदड़ी ए हमने उनके ही पास रखी देखी थी। सामने आलमारी में उनका थैला यथावत रखा है ए पर क्या प्रतीकों से स्वयं में बोध जग सकता हैघ् यहॉं हर क्षण ए उस परम के निमित्त ही हो ए अनय कोई विकल्प नहीं ए यही संकल्प रहे ए धन ए पद ए सम्मान की प्रतीक्षा ही जीवन को गरजमई अपेक्षा में ले गर्इ्र। दूसरे करते हैं ए हम भी करें ए मार्ग ही भटक गया ए यह तो समर्थगुरु की कृपा ही है ए जो हर बार हाथ पकड़कर मार्ग पर ले आते है ए जाना अब मार्ग ही मंजिल है। निरंतर वर्तमान में रहना ही मार्ग हेैं
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योगेनसदानन्दस्वरूप दर्शनम्।
आनन्द भिक्षाशी।
महाश्माशानेऽप्यानन्द वने वासः।
एकान्तस्थान मठम्।
उनमन्यवस्था शारदा चेष्टा।
उन्मनी गतिः।
निर्मलगात्रम् निरालम्ब पीठम्।
अमृतकध्ोलानन्द क्रिया।
योग द्वारा वे सदैव आनन्द.स्वरूप का दर्शन करते हैं।
आनन्द.रूप भिक्षा का भोजन करते हैं।
महाश्मशान में भी आनन्ददायक वन के समान निवास करते हैं।
एकान्त ही उन का मठ है।
प्रकाश.अवस्था के लिए वे नित.नूतन चेष्टा करते हैं।
अ.मन में ही वे गति करते हैं।
उन का शरीर निर्मल हैए निरालम्ब आसन है।
जैसे निनाद करती अमृत.सरिता बहती हैए ऐसी उन की क्रिया है।
योगेन सदानंद स्वरूप दर्शनम्। आनंद भिक्षाशी।
योग द्वारा वे सदैव आनंद स्वरूप का दर्शन करते हैं। आनंद रूप भिक्षा पाते हैं।
महाश्मशानेऽप्यानंद बने वासः
यहां श्मशान में भी आनंद दायक वन के समान निवास करते हैं।
आनंद जो न आता हैए न जाता है। आते. जाते सुख.दुख हैंए ये जिस आधार पर आते हैंए वह आनंद है। आनंद हमारा स्वभाव हैए सुख.दुख गत्यात्मक भाव हैं।
आधार क्या हैघ् जहॉं परिस्थितियॉं आती हैं जाती हैंए जैसे काश्तकार खेत को तैयार करता है ए उस पर फसल आती है ए उगती है ए बढ़ती है कटती है। फिर दूसरी फसल आती हें पर आधार खेत विचलित नहीं होता । यही रहस्य है। आनंद ही हमारा स्वभाव हेै। हमारी स्वाभाविक अवस्था है ए सुख. दुख फसल की तरह आते हैं जाते हैंे। आधार अविचलित अप्रभावित रहता हैे।
यहॉं ऋषि कह रहे हैंए जो इस आनंद में हैंए वही योगी है। वह अपने इस भीतर के स्वरूप में स्थिर होगया है।
वह रोगए शोक एमृत्यु के पार हैए उसके शरीर में सब घटेगाए पर वह अविचलित है।वह अपने आधार को जान गया है ए उसमे ही हेैए वही आत्मा है ए वह आनंद स्वरूप है।
स्वामी जी अपने बारे मेंए गुरुकुल में आने के 35 वर्ष बाद अपने बारे में बोले थे। तब एक प्रवचन में उन्होंने अपने बारे में तथा साधना के बारे में खुलकर बताया थाए जब वे इस निर्जन स्थान पर आए थेए तब एक नाला बहता थाए ण्ण्ण्चरागाह थी। पटेलों की जमीन थी। कुछ पेड़ थे। निर्जन था। वहां उन्होंने अपनी कुटिया बनाई। न यहां की भाषा आती न कोई पहचान। वे कहते थे ए मैंने कुछ जाना ए इसीलिए मैं ऐसे स्थान की खोज में था ए जहॉं रहकर जो जाना है ए उसे प्रयोग करके देखूॅं। इसीलिए इस निर्जन स्थान पर आया।
. जिन्हें योग प्राप्त हैए उनकी पहचान गहन आत्मविश्वास में होती है। स्वामी जी कहा करते हैंए श्आप कोई सी भी साधना करेएं आपका प्रयास सही हो। आपको गहन आत्मविश्वास की प्राप्ति होगी। ष्भोजन की चिंता नहीं। मिला तो ठीकए ले लिया। आनंद भिक्षाशीए न मिठाई का पता न फल का स्वादए बस देह के संचालन के लिए जितना आवश्यक होए उतना लियाए पचास साल तकए उस कुटिया में रहे। धीरे.धीरे जनसंपर्क बढ़ाए पैदल अक्सर जाना शुरू हुआ। मीलों पैदल चलते थे। गांव.गांव घूमते थे। बस एक छोटा सा झोला। आनंद ही उनकी पहचान होती है। वे सदैव आनंद में ही विचरते हैं। किसी के प्रति किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं होता। न निंदा न प्रशंसा। आप्त काम अपने भीतर तक डूबे हुएए अपने भीतर उतरे हुए।
ण्ण्ण्ण् स्वामी जी को देखा था. घंटों निर्विचारता में बैठे हुएए ण्ण्ण् एकांत मेंए ण्ण्ण् जब प्राघ्यापक थाए लाइब्रेरी से किताबें लाता। शाम तक कहते थेए पढ़ लींए ले जाना। पढ़ने की तेज गति। एक दिन में पांच सौ छह सौ पेज पढ़ जाते। मिलने वाले आतेएपूछने परए ं. ष्सीधा उत्तर आता थाष्ए जो गया सो गयाए बाद में उसकी चर्चा नहीं थी। बहुत पूछने पर कुछ कहते. जो आता हैए जाता हैए वह आनंद नहीं है। वह तो सुख.दुख हैए ण्ण्ण् वह जिस पर आता हैए जो उसका आधार हैए वह आनंद है। एक रस।
जब अस्वस्थ हो गए थेए तब आयु नवासी के पास हो गई थी। ण्ण्ण् बोले पंचमहाभूतों का अपना कार्य है। संघटन और विघटन। जो शक्ति जन्म के समय सक्रिय होती हैए वही देहांत पर भी। देह का जन्म और कारण स्वाभाविक अवस्था है। उस दिन एक अभ्यासी ने पूछा थाए हिमालय पर ऋषि हैंए जिनकी सैकड़ों सालों की आयु हैए वे युवावस्था में हैए किताबों में लिखा है।ष्ष्
स्वामी जी बोले. मृत्यु स्वाभाविक क्रिया है। सबकी होती है। प्रकृति के नियम है। मान लो कोई हजार साल का भी हैए तो क्या फर्क पड़ने वाला हैए हम लोग अतिश्योक्ति को चमत्कार मानने वाले हैं। विवेक से काम लेना चाहिए। मरणाधर्मा यह शरीर है। इसका विघटन होना स्वाभाविक है।
आनंद भिक्षाशी
वह आनंद की ही भिक्षा लेते हैं। इससे कम नहीं। हम वस्तु चाहते हैंए सोचते हैं उससे आनंद मिलेगा। हम संग्रहालय बन जाते हैं। पर आनंद दूर चला जाता है। जो हमारे अपने ही पास हैए वहॉं जाने के लिए बाहर का भटकाव क्योंघ् वह तो अपने ही पास है ए हर पल को ए हर स्थिति को यह जानते हुए ए सब परिवर्तशील है आनद से जीया जाए। जाता हुआ पल लौटकर नहीं आएगा।
यही भगवान बुद्ध की देशना है ए हर क्षण को आनंद में कैसे बदला जाए। जगत क्षणिक है ए पर उसकी उपादेयता है ए उसे जीने के लिए हम स्वतंत्र हैं।
आनंद का कोई साधन नहीं हैए वह तो स्वयं साध्य है। जितना मन निर्विचारता में रहने लगेगा ए उतना ही हम आनंद के समीप ही होगे। आनंद ही उस परमात्मा की अनुभूति हें वही अपनी भीतर की ऑंख है।
ष्एकांत स्थान मठम्ष् एकान्त स्थान ही उनका मठ है।
ष्एकांतए अकेलापन। एकाकी तनो शब्द समानार्थी नहीं हेैं।
भीतर अब कोई भीड़ नहीं रही। बाहर तो हैए लोग हैंए जगत हैंए पर भीतर उनकी कोई अब दस्तक नहीं है। यह है एकांत। दूसरे की भीड़ बाहर न होने पर अकेलापन महसूस होता है। मैंए हूंए हूंए दूसरे की जरूरत ही नहीं रही हैए यह एकांत होता है।
ण्ण्ण् यह एकांत ही सन्यासी का मठ है। जब स्वामीजी समझाते थेए में भी दूसरा हूॅं एतब वास्तव में बस ऑंखें आंसुओ से नहा जीती थीं। अपने गुरु के सानिध्य में जीवन निकल गया ए जहॉं प्रेम ही प्रेम हैं ए वे कहते मैं भी दूसरा हूॅ। मुझको भी एक दिन भूल जाना ए चिन्तन गिरा देना ए नही ंतो एकांत में नहीं रह पाओगे ए आलंबन रहेगां
स्ंात कबीर ने तभी कहा था.
प्रेम गली अति सांकरी या में दो न समायए तुमने समझ का आदर किया ए बस चल पड़ो रुकना नहीं ए अगर फिर कहीं भटक गए तो सांप. सीढ़ी के खेल की तरह अहंकार का सांप डस लेगा ए यही एकांत का ए निरंतर वर्तमान में रहने का अपना महत्व हैे। वहॉं दूसरा अपने आप छूट जाता हेै।
न शुभ ए न अशुभ ए न धर्म न अधर्म सब को छूट जाने दोए तभी उस निर्विचारता में चैतन्य को विश्रााम मिलता है।
जहां भीड़ हैए कोलाहल हैए दूसरे की अहर्निश प्रतीक्षा हैए वहां अकेलापन खलता है। बुढ़ापे की समस्या यही है। अकेलापन खाता जा रहा है। शहर की भीड़ भी कम हो गई है। कोई आएए प्रतीक्षा रहती है। भीतर की भीड़ हैए वह दिनभर.रातभर साथ चलती रहती है। सपने भी दूसरों के आते हैंए दिन में विचारणा अहर्निश चलती रहती है। पर जो सिद्ध हैंए वे आनंद में है। आनंद उन्हेंए उनके एकांत ने सौंपा है। उनके पास विचारों की भीड़ नहीं है। बाहर की भीड़ नहीं है। बाहर लोग आते हैंए ण्ण्ण् पर वे ग्रेनाइट के पत्थर की तरह शांत हैंए ण्ण्ण् विकारों की लहरें टकरा.टकराकर लौट जाती हैए वे प्रभावित नहीं कर पाती है। तनावए उपेक्षा से आता है। दूसरे का द्वारा दिया सम्मानए अपमान निरन्तर डावाडोल करता रहता है। पर जो एकांत में हैए वहां दूसरा कभी का खो गया है। वह अब प्रभावित नहीं कर पाता है।
यही वास्तविक एकांत है। यही मठ है। जहां वे रहते हैं। आजकल तो सबको भीड़ की तलाश हैए ण्ण्ण् भीड़ का सम्मोहन तेजी से खींचता है। वहां श्रेय भी हैए और प्रेम भी है। पर जो सिद्ध हैए ण्ण्ण् वे पहले ही मुक्त हो चुके हैं। वहां निरंतर आनंद हैए चित्त निर्विचारता में है। वे निरन्तर वर्तमान में है।ए दूसरा हमेशा या तो भूत में आता है या भविष्य में।
22
ऋषि कह रहे हैं.
उनकी गति उन्.मनी है। उन्मनी। अ मन। निर्विचारता में ही वे रहते हैं।
ण्ण्ण् अभ्यासी निरंतर मन में रहता है। मन से वह मन के पार जाना चाहता है। एक मन से दूसरे मन में चला जाता है। मन और ष्मैंष्ए एक रूप हो गए है। स्वामीजी कहा करते हैं. ष्मन बंदर की तरह हैए जैसे बंदर ध्यान हटते ही वस्तु को लेकर चला जाता हैए उसी तरह ध्यान हटते ही मनए यहां से वहांए न जाने कहां चला जाता है।
उस पर सतत् निगरानी रहे। निरंतर।
स्वामीजी समझाते थेे ए ध्यान सिखाने की विधि नहीं है। यह तो वर्तमान में रहना ही है। आप शांत हैं ए मौन हैं एक पल भी रहें बहुत है ए एक धक्का सा आएगा ए मन तुरंत भूत या भविष्य में भटक जाएगा। बस मन को वहीं रखना है ए वह भटके नहीं। अगर एक पल भी रह गया ए तो अगली बार दस पल भी रहेगा। फिर यह समय अपने आप बढ़़ने लगेगा। यह पहला पल ही कठिन है। यह रहना कोई सिखाने की विधि नहीं ए आप एकाग्रता को सिखा सकते है। आप वर्तमान में जहॉं हैं जहॉं शरीर है ए वहीं मन है। बस रहना है।
अगर दुनिया मेंसफलता पानी हो तो मन को प्रशिक्षित किया जाए। मन को एकाग्रता मिले पर अगर विराट की ओर बढ़ना हैए तो मन भी भार हैं। उसे छोड़ना ही होगा। यही उन्मनी गति है।
वर्त्तमान में रहने की कला यही है कि मन स्वाभाविक रूप से अमन की ओर बढ़ जाता है। वहॉं क्रिया तो हैए पर कोई चिंतन नहीं है। मन को सहारा मिलते ही वह बाहर दौड़ जाता है।
पहले ही कहा गया हैए अंकुशोमार्गए अंकुश हाथी के माथे पर लगता हैए विचार के उठते ही उस पर रखी निगरानी उससे दूर ले जाती र्है
ध्यान की कोई विधि नहीं होती। ध्यान का मतलब होता हैए जहां मन के सारे सहारे गिर गएए वही ध्यान है। ध्यान कोई सिखाने की बात नहीं है।
स्वामीजी समझाते थे ए आप कठिन मानते हैं ए मैं तो घंटों इसी स्थिति ें रहता हूॅं ए कोई विचार नहीं आता।
निर्मलगात्रम् निरालम्ब पीठम्।
अमृतकल्लोलानन्द क्रिया।
उन का शरीर निर्मल हैए निरालम्ब आसन है।
जैसे निनाद करती अमृत.सरिता बहती हैए ऐसी उन की क्रिया है।
घर पागया तुम्हारा घर बदल.बदल करए एयहॉं सारे आश्रय ही गिर जाते है।कोई सहारा नही रहा। तब उस विराट का ही सहारा शेष रह जाता है। स्वामीजी कहा करते थेए तब प्रकृति सारे कार्य.व्यवहार स्वयं संभाल लेती है। उनके पास उनके भीतर इस निरालंब पीठ को हमने जाना था।
निर्मल शरीर ही वहॉं ए रह जाता हैए उनके समीप रहते ही लगता हैए मानो गंगा स्नान होगया हो। उनका सानिध्य ही सत्संग होजाता है। लगता है मानो निनाद करती हुई सरिताएॅं पास से गुजर रही होंए ऐसी ही उनकी शारीरिक क्रियाएॅं हो जाती है।।वहॉं मन का कोई भार नही है। अंतर्मन ही है। वहीं विराट है। शरीर और उसकी क्रियाएॅंए वेणुनाद बन जाती है।
पूज्य स्वामीजी के पास रहकर ही हम ऋषि की इस वाणी का अर्थ ग्रहण कर पाए थे। स्वामीजी को सबने देखा है ए वहॉं उनका मन निरंतर निर्विचारता में ही रहता था ए उनकी हर क्रिया सहज आनंद की ही अभिव्यक्ति थी।
23
पाण्डरगनम् महासिद्धान्तः।
शमदमादि दिव्यशक्त्याचरणे क्षेत्र पात्र पटुता।
परात्पर संयोगः तारकौपदेशः।अद्वैतसदानन्दो देवता नियमः।
स्वान्तरिन्द्रिय निग्रहः।
शुद्ध परमात्मा उन का आकाश है। यही महा सिद्धान्त है।
शम.दम आदि दिव्य शक्तियों के आचरण में क्षेत्र और पात्र का अनुसरण करना ही चतुराई है।
परात्पर से संयोग ही उन का तारक उपदेश है।
अद्वैत सदानन्द ही उन का देव है।
अपने अन्तर की इन्द्रियों का निग्रह ही उन का नियम है।
ष्पांडर गगनम् महासिद्धांतः
परमात्मा ही उनका आकाश हैए यही महासिद्धान्त है।ाशुद्ध परमात्मा ही उनका आकाश है। पांडरए का अर्थ हैए शुभ्रए श्वेतए । बाहर का आकाश हम सब जानते हैंए असीम हैए ण्ण्ण् पर भीतर के आकाश का पता स्वप्न में चलता हैए जब नाना प्रकार के प्राणी वहां अचानक आ जाते हैं। रंगीन रोशनियां भी हो जाती है। वहां यात्रा भी होती है। देवता के दर्शन भी होते हैं।
ण्ण्ण् उस भीतर के आकाश में जो गति करता हैए ण्ण्ण् वह मन ही है। मन ही नाना रूप धारण करए ण्ण्ण् जैसे आकाश में बादल चले आते हैंए ण्ण्ण् वह नाना रूपों से आकाश को ढके रहता है।
ण्ण् मन जब स्थिर होने को होता हैए ण्ण्ण् तब रंगीन स्वप्न भी आते हैं। तेज रोशनी भी दिखती है। पर सच तो यह है कि भीतर के आकाश को हम जान ही नहीं पाते है।
ण्ण्ण् भीतर के आकाश का अनुभव उनको ही होता हैए जो सिद्ध है। उनके भीतर बादलों की सर्जना अब नहीं होती। ष्शून्य शिखर पर हैए वे वहां मात्रण्ण्ण् मौन है। जब वाक् ण्ण्ण् अंतर्मुखी होती हुईए ण्ण्ण् ष्पराष् में ढल जाती है। तब भीतर के आकाश का अनुभव होता है।
बाह्यमन और अंतर्मनए ण्ण्ण् स्वामी जी के दो शब्द हैं। बाह्यमन निरंतर बाहर घूमता हैए वह चेतन है।ए पर जो सुप्त हैए अदृश्य हैए वह अन्तर्मन हैएवहां सारा सार संग्रहित है। वह विराट के समीप है। ण्ण्ण् बाह्यमन जब अंतर्मन में लय होता हैए ण्ण्ण् तब बाह्यमन का नाश नहीं होताए ण्ण्ण् जो अंतर्मन हैए जो अचेतन हैए सुप्त हैए वह जाग्रत हो जाता है। अरविंद ने समझाने के लिए अपना शब्द दिया थाष् अतिमानस का जगना।
पदार्थ की सत्ता बाहर है। परमात्मा का निवास भीतर है।
पर हमें भीतर के आकाश का कोई पता नहीं है। यह भीतर का आकाश जब दिखता हैए तब देखने वाला ही नहीं रहता।
ण्ण्ण्शमदमादि दिव्यशक्त्याचरणे क्षेत्र पात्र पटुता।
शम.दम आदि दिव्य शक्तियों के आचरण में क्षेत्र और पात्र का अनुसरण करना ही चतुराई है।
यहां जो आता हैए ण्ण्ण् वहां शक्तियों के अनुभवन का द्वार खुलता है। शास्त्र कहता है। ष्शक्तियों का समुचित उपयोग ही श्रेष्ठ हैए ण्ण्ण् शक्तियां तभी आती हैए जब बाह्यमन निष्क्रिय होने को होता है। उपयोगए बाह्यमन ही करता है। उसके लिए बहिर्मुखता होनी आवश्यक है। वह तो संसार में ही होगी।स्वामी जी कहा करते थे. ष्पतन की यहीं संभावना होती है। बाह्य का प्रलोभन बहुत जोर से धक्का देता है। मैं मना नहीं करताए पर जब अंतःप्रेरणा उठेए तब प्रयोग कर सकते होंए ण्ण्ण् हर जगह नहीं। धन की तथा प्रशंसा की नाव में चढ़ने से बचो। हांए सेवा के कार्य में प्रयोग करना होए तो कर लोए पर ध्यान रहेए लोभ और मोह संचित न होने पाए।ष्
परात्पर संयोगः तारकौपदेशः।
परात्पर से संयोग ही उन का तारक उपदेश है।
ष्शक्तियों का सदुपयोग ही सार है। अगर यह सदुपयोग रहा तो परात्पर से संयोग संभव है। विवेकी वही हैए जो इस संतुलन को जानता है। वह जानता हैए ण्ण्ण् उसके लिए कोई सीमा नहीं हैए पर वह स्वयं सीमा का निर्धारण कर देता है। ण्ण् जहां सीमा टूट जाती हैए फिर उस बहाव को रोकना कठिन हो जाता है।
तेज बाढ़ का पानी पूरे गांव को डुबो देता है। यही स्थिति आ जातीए पतन की संभावना बढ़ जाती है।
ष्शास्त्रए सिद्ध की पहचान में कहते हैं.
अद्वैतसदानन्दो देवता नियमः।
स्वान्तरिन्द्रिय निग्रहः।
अद्वैत सदानन्द ही उन का देव है।
अपने अन्तर की इन्द्रियों का निग्रह ही उन का नियम है।
वह उसी सदानंद की जो सदा ठहरने वाला हैए चिन्मय हैए अविनाशी हैए उसी की पूजा करते हैं।कभी अमीर खुसरो ने कहा थाएश् छाप तिलक रख दीनी तो से नैना मिलायकेश् यहॉं सारा कर्मकांड छूट जाता है।
गुरुकुल में जब गुरुपूजा का उत्सव होता थाए कुछ लोग सुबह हवन किया करते थेए रात को अखंड रामायण करते थे। स्वामीजी यही कहते थेए उनकी इच्छा हैए वे करेंए ए पर वे कुटिया से उधर नहीं जाते थे। सब को अजीब सा लगता था। पर वे जिस देव की पूजा में थेए उस अद्वैत सदानंद से हम तब अपरिचित थे।
वे अपनी भीतर की इन्द्रियों का भी निग्रह कर लेते हैं।
स्वामीजी के पास रहकर जाना था। यह कैसे संभव होता हैघ्
वे कहा करते थेए विषय और इन्द्रियों का जुड़ाव मन से होता हैए अगर मन हट गया तो संबंध टूट जाता है। यह संबंध जुड़ता हैए निरन्तर चिन्तन करने से।
कुछ मित्रों ने तब सवाल किया था ए इन्द्र्रिया भी रहेंगी ए विषय भी होगे ए पर संबंध कैसे टूटता हैघ् संबंध जुड़ता है ए मन के कारण से निरंतर वर्तमान में रहने से यह संबंध अपने आप शिथिल हो जाता है। यही वास्तविक ध्यान है। मन से ही मन की निरंतर निगरानी बनी रहे।
उनके पास जाना थाए अंतःइन्द्रिय का भी नियंत्रण संभव है। ऐसा नहीं था कि ऑंखों से दिखनासंभव नहीं थाए या कान बहरे थेए पर संबंध टूटा हुआ था। जब भी कोई सामने आता दो.तीन बार बोलताए वे तुरंत उसे पहचान लेते। वह गयाए संबंध टूट गया।
यहॉं जो आवश्यक नहीं थाए वह अपने आप गिरता चला गय था। इस अवस्था में इन्द्रियॉं मात्र से श् वहश् ही रह जाता हैंए क्योंकि मन का जुड़ाव विषयों से छूट गया है।
ण्ण्ण्24
भय मोह शोक क्रोध त्यागस्त्यागः।
परावरैक्य रसास्वादनम्।
अनियामकत्व निर्मल शक्तिः।
स्वप्रकाश ब्रह्मतत्वे शिवशक्ति सम्पुटित प्रप´चच्छेदनम्।
तथा पत्राक्षाक्षिक कमण्डलुः भावाभावदहनम्।
विभ्रत्याकाशाधारम्।
भयए मोहए शोक और क्रोध का छोड़नाए यही उन का त्याग है।
परब्रह्म के साथ एकता के रस का स्वाद ही वे लेते हैं।
अनियामकपन ही उन की निर्मल शक्ति है।
स्वयं प्रकाश ब्रह्मत्व में शिव.शक्ति से सम्पुटित प्रप´च का छेदन करते हैं।
जैसे इन्द्रिय रूपी पत्रों से ढका हुआ मण्डल होता हैए ऐसे ही ढकने वाले भाव और अभाव के आवरण को भस्म कर डालने के लिए वे आकाश रूप आधार को धारण करते हैं।
जब स्वामीजी पहली बार मिले थे तब उनके पास मैं ही अकेला था ए मेरे पास अनंत जिज्ञासाओं का भंडार था। तब यह उपनिषद स्वामीजी ने मुझे पढ़ने को दिया था। अनेक प्रश्न अपने आप गिर गए एउनके महानिर्वाण के बाद जाना ए यह संबंध काईे नया अयाचित नहीं बना ए प्रकृति को क्या कब देना है वह स्वतः अपने आप आजाता है।
इसीलिए जब अनंत यात्रा संपादित की तब ब्रह्मनिष्ठ गुरु के सानिध्य में सब स्पष्ट होता गया। यही वास्तविक मेधा की पहचान और परख है।
भयए मोहए शोकए क्रोधए त्यागही वास्तविक त्याग है।
भयए मोहए शोकए क्रोध को छोड़ना ही उनका त्याग है। स्वामी जी कहा करते थे. ष्स्मृति पाप है। साधना कोई सी भी होए अभ्यासी को जो उसकी पूर्णता पर लाभ होता हैए वह उसका आत्मविश्वास ही है। जहां आत्मविश्वास हैए वहां अभय भी है।
ण्ण्ण् जहां आसक्ति हैए वहीं मोह हैए वहीं शोक हैए वहीं क्रोध है। शास्त्र कहता है. जो सुख की लालसा से रहित हैए तथा जो दुख में अनुद्विग्न नहीं होता हैए वही जो वीतराग हैए वही भय और क्रोध से बाहर है। वीतरागए राग से परे होना। आसक्ति रहित होना।
सन्यासी का त्याग वृत्तियों का त्याग होता है। बाहर से गृहस्थ पकड़ता हैए । पर वास्तविक त्याग भीतर का है।
ण्ण्ण् स्वामी जी कहा करते थे. तुम जिसे छोड़ना कहते होए ण्ण्ण् वह कहां छूटता हैए ण्ण्ण् राग तो चिपटा रहता है। वस्तु तुम्हारी नहीं है। संपत्ति तो अस्थायी है। ण्ण्ण्ण् आज हैए कल नहींए ण्ण्ण् असली संपत्ति जो हम साथ लाते हैंए वह हमारी स्मृति है। स्मृति का छोड़ देना ही त्याग है। वही तुम्हारी पूंजी है। जो संस्कार बनकर साथ आती हैए साथ जाती है।
उनके जीवन की घटना हैए .स्वामी जी को यह पता नहीं था कि गांव वालों को समझाया गया था कि वे कुटिया पर जाएं और उन्हें मार.पीटकर भगाऐं। वे लकड़ियां साथ लेकर आए थे। राजनेता उनके पीछे थे। परन्तु वे एक लंगोटी में कुंवे के पास नहाने के लिए खड़े थे। साथ जो सेवक थाए वह भी पूर्व से भयभीत था।पर वे आए। लकड़ियां फेंककरए दंडवत करते चले गए।
ष्बाद में पूछा. तो बताया गया। वह तो मार.पीट करने आए थे।ष्
ण्ण्ण् जो सन्यासी हैए वह जानता हैए ण्ण्ण् जब सब कुछ छोड़ दिया हैए वहां देह तक की आसक्ति नहीं रही है। कल जानी हैए आज चली जाए। रहना न रहना अब महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है।
ण्ण्ण् भय वहीं होता हैए ण्ण्ण् जहां अशुभ न हो जाएए इसकी अपेक्षा रहती है। ण्ण् सतर्कता होए पर आत्महत्या नहीं करनी हैए जहर नहीं पीना हैए पर सुकरात की तरह जब पीना ही होए तब शांति व सजगता से पीना है। उसमें भय नहीं रहता। वहां अभय रहता है।
ण्ण्ण् जहां भीतर का कोलाहल थम गया है। वहां एकांत ही है। अकेलापन वहां त्रासदी नहीं है। मौज है। दूसरा या तीसरा भी तो मैं ही हूं। शरणानंद जी कहा करते थे. ष्कोई और नहींए कोई गैर नहीं। जो एकांत को उपलब्ध हैए वही यही कह सकता है। वहां मोह को जगह नहीं मिलती है। तोर.मोर ही झगड़े की जड़ है। संपत्ति का विस्तार इसीलिए होता है। भविष्य के लिए आयोजन होता हैए जहां एकांत हैए ण्ण्ण् वहां मोह भी अंधी छाया को जगह नहीं मिलती।
ण्ण्ण् जहां मोह होता हैए वहीं शोक भी आता है। आशा हैए ण्ण्ण् आशा बलवती राजन्.निराशा परम सुखंष्ए शास्त्र कहता है. आशाए हरेक के साथ जुड़ी हुयी है। उसको ऐसा ही होना चाहिए था. नहीं हुआ दुख है। आज किराएदार घर खाली कर गया हैए दुख है। सेवक नहीं आया हैए दुख है।
यह दुखए दूसरों को लेकर ही आता है। शोक क्या हैए जो अपेक्षाएं हैंए वे वे पूरी न हो रहीं। स्वामी जी ने कहा है. ष्कर्तुम.अकर्तुम अन्यथा कर्तुमष् कुछ तीसरा ही घट सकता है। उसका हो जाना तुम्हारे लिए अस्वाभाविक हैए पर उसका ऐसा ही होना स्वाभाविक है।
ण्ण्ण् हमारी अपेक्षाएं जब पूरी नहीं होती हैए ण्ण्ण् तब दुःख होता है। दूसरे की अपनी गति हैए अपनी चाह हैए उसका अपना मार्ग हैए ण्ण्ण् उसकी अपनी सोच है। दूसरा कोई हमारी आशाओं को पूरा करने नहीं आया है। यही सबसे बड़ी गलती होती है। हर आदमी की अपनी यात्रा है। वह अपनी आकांक्षाओं कोए इच्छाओं को पूरी करने हेतु पैदा हुआ है। जो अभ्यासी हैए उसे अपना बोझा दूसरों पर धीरे.धीरे कम करते जाना चाहिए। दूसरों से किसी प्रकार की अपेक्षा न की जाए। हर आदमी अपने अपेक्षा ही पूरी करने के लिए आया है। प्रकृति ने हमें अपना काम सोंपा हैए हमने उसे पूरा कियाए हमें संतोष है। हमें घोर दुख मिलाए उसे ऐसा ही होना था । बस यही सार है।
सन्यासीए ण्ण्ण् भयए मोहए शोक से इसीलिए दूर चला जाता है। उसकी अपनी गति हैए वह अनाम यात्री है।उसकी किसी के प्रति कोई अपेक्षा नहीं है।
आज दुःख है। जो अपना ही थाए अत्यधिक प्रिय थाए छोड़कर चला गयाए वह हमेशा के लिए घर खाली करके चला गया। ण्ण्ण् उससे अपेक्षा थीए ए ण्ण्ण् अपूर्ति का अहसास दुःख दे गया। जाना दुःख तभी होता हैए जो हम चाहते हैंए वह वैसा नहीं घटता। अन्यथा कर्तुम तीसरा ही रास्ता खुल जाता है।
जहां दूसरों सेए पत्नी सेए पुत्र सेए पिता सेए गुरु सेए शिष्य सेए किसी भी प्रकार की कोई अपेक्षा नहीं रहतीए ण्ण्ण् तो शोक भी नहीं होताए दुःख भी नहीं होता। जहां अपेक्षा का अभाव होता हैए ण्ण्ण् वहां क्रोध को भी जगह नहीं मिलती। कोई दूसरा प्रेम करेए वह नहीं करता हैए तो क्रोध हैए वहां अपेक्षा रही। पर मैं तो प्रेम में हूंए यह मेरा स्वभाव है। दूसरे का आश्रय नहीं है। वहां क्रोध को भी ठहरने को जगह नहीं है।
क्रोध तभी होता हैए जहां दूसरा होता हैं उसके प्रति अपेक्षा रहती है। वह पूरी नहीं हुयीए क्रोध होता है।
शास्त्र कहता है. क्रोध वहीं होता हैए जहां हम दूसरे को जिम्मेदार मानते हैंए क्रोध से हम सभी हट सकते हैंए जब हम यह समझ लेते हैं कि हम ही कारण हैए हम ही जिम्मेदार हैं।
25
परा व रैक्य रसास्वादम्ष्
पर ब्रह्म के साथ एकता का स्वाद वे ही लेते हैं.
ण्ण्ण् वहांए न क्रोध हैए न शोक हैए न मोह है।
दूसरा है ही नहींए न हीं कोई अपेक्षा है। स्वामी जी को देखा था. कोई प्रणाम कर रहा हैए या नहींए इसकी भी अपेक्षा नहीं थी। गुरुपूजा महोत्सव मनाने से मना कर दिया था. कहा.ष्कोई आकर मेरे पांवों में रोली लगाएए फूल चढ़ाए मुझे भेंट करेए मुझे पसंद नहीं है। मैं भी आपकी तरह साधारण इन्सान हूं।ष्
दूसरा इतना अनुपस्थित थाए कि वह सामने आकरए दो तीन बार कुछ बोलताए ण्ण्ण् तब उससे इन्द्रियों का संबंध जुड़ पाता था। आंख थीए ण्ण्ण् पर आकृतियां बनतीए पहचान नहींए श्रवण थाए पर ध्वनियां रहती थीं। संबंध जब मन का इन्द्रियों से जुड़ता थाए ण्ण्ण् तब पहचान होती वे कुछ बोलते थे। शास्त्र कहता है. ष्वे परब्रह्म के साथ एकता का स्वाद लेते हैंए वे गुलाब जामुन की तरह नित्य चाशनी में डूबे रहते हैं।
कई बार पूछा था. ष्आप घंटों अकेले बैठे रहेए बोर तो नहीं हुएए ण्ण्ण् स्वामी जी हंसते थेए ण्ण्ण् बोर अब हो रहा हूं। मुझे बोलने में तकलीफ होती है। ण्ण् जब कोई नहीं होताए ण्ण्ण् मुझे समय का बोध नहीं रहताए ण्ण्ण् कुटिया में कौन गयाए कौन आयाए कुछ पता नहीं।ष्
ण्ण्ण् अनियामकत्व निर्मल शक्तिः।
यहॉं नियमों की कोई बाध्यता नहीं है। कोई दबाब नहीं है।
एक राजनेता ने कहा था. ष्स्वामी जी अच्छे प्रबंधक नहीं हैं। तब उनकी बात मुझे अच्छी नहीं लगी थीए क्योंकि वहां किसी प्रकार का कोई अनुशासन नहीं था। गांव वाले आतेए बस प्रणाम कियाए सोतेण्ण्ण् नींद निकालकर चले जाते। लगता थाए जैसे सोने आए हों।
न कोई मंदिर थाए न कोई पूजाए न ध्यान सिखानाए ण्ण्ण् न ही प्रार्थनाए ण्ण्ण् ऐसा कुछ नियम नहीं थाए जिससे किसी आश्रम का बोध होता है। साधारण सा तख्तए छोटी सी कुटियाए उसके बाहर दस बारह कुर्सियांए दो एक स्टूल बस।
ण्ण्ण् जो भी खाना बनता या बाहर से कोई गृहस्थ लाता। सबको बंट जाता। एक से बर्तनए एक से गिलासए कुछ भी तो स्वामी जी का अपना निजी वहां नहीं था।
दूसरी बातए वे हमेशा गृहस्थों के यहां ठहरते। उनके बुर्जुग की तरह रहते। अपनी ओर से कोई प्रवचन नहीं। हांए सुबह.शाम जो लोग आतेए उनसे वे वार्ता करते थेे।उनका अपना अनुशासन थाए ण्ण्ण् मानो शरीर उससे संचालित हो। भोजन के समय भोजन नहीं आयाए तो भूख भी नहीं रहती थी। बहुत कम आहारए ण्ण्ण् पर उसकी भी वांछा नहीं थी। न कोई व्रत या न उपवासए ण्ण्ण् किसी प्रकार के किसी नियम पर वहां बाध्यता नहीं थी।
ष्हांए जब विकार सब गिर जाते हैंए तब वहां मात्र ष्वर्तमान ही शेष रह जाता है। जहां वर्तमान हैए वहां उस अखंड परमात्म भाव ही में एकलीनता प्राप्त होती हैए वहां फिर बाह्य अनुशासन का क्या कामघ् यह बात बहुत वर्षों बाद जानी। उस अनियम में भी नियम रहता था। अंतःप्रेरणा ही नियामक होती है। जो प्रकृति की आज्ञा से परिचालित होती है।
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शिवम् तुरीयम् यज्ञोपवीतम् तन्मया शिखा।
चिन्मयम् चौत्सृष्टिदण्डम् सन्तताक्षि कमण्डलुम्।
कर्म निर्मूलनम् कन्था।
मायाममताहप्रार दहनम् श्माशने अनाहतांगीि
तुरीय ब्रह्म उन का यज्ञोपवीत है और वही शिखा है।
चैतन्यमय हो कर सन्सार.त्याग ही दण्ड हैए ब्रह्म का नित्य दर्शन कमण्डलु है।
और कर्मों का निर्मल कर डालना कन्था है।
श्मशान में जिस ने दहन कर दिए हैंए मायाए ममताए अहप्रारए वही अनाहत अंगी. पूर्ण व्यक्तित्व वाला है।
शिवम् तुरीयं यज्ञोपवीतं तन्मया शिखा.
ष्तुरीय ब्रह्म ही उनका यज्ञोपवीत हैए वही उनकी शिखा है।ष्ए तुरीयण्ण्ण् स्वामी जी ने ष्अनंत यात्राष् में लिखा है. वह जाग्रतए स्वप्न तथा सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में ष्एक्यष् का अनुभव करता हैए और यह प्राप्त होती हैए आत्मकृपा सेए ण्ण्ण् ब्रह्मनिष्ठ गुरु से तथा ष्ऊर्ध्व कुंभक प्राणायाम से।ष् ण्ण्ण् स्वामी जी कहा करते थे.
ण्ण्ण् मात्र वर्तमान में रहने सेए ण्ण्ण् यह उपसंपदा सहज ही प्राप्त होती है।
ण्ण्ण् स्वामी जी यह भी कहा करते थे. ष्दैवी ह्येषा गुणमयीए मम माया दुरत्याए ण्ण्ण् यह मेरी ही माया हैए ण्ण्ण् मैं ही इसके पार जा सकता हूंए ण्ण्ण् तीनों गुणों से पारए ण्ण्ण् जब बुद्धि ही अत्यधिक शुद्ध हो जाती हैए तब विवेक में प्रवेश होता है।
ण्ण्ण् विवेक की प्राप्ति हीए यह चौथा कदम है।
ष्तीन पांव तो दिखाई पड़ते हैंए ण्ण्ण् अभ्यासी का पथ हैए पर चौथा अगम हैए मात्र अनुभूति है।
ण्ण्ण् पहला कदम ही हमारा सही नहीं पड़ता है। जाग्रत में सजगता तभी सधती है जबए हम वर्तमान में रहना शुरू करते हैं। तभी अतीत की धूल झड़ने लगती है।
ण्ण्ण् स्वामी जी कहा करते थे. ष्अतीत में झांकने का प्रयास मत करनाए न ही भविष्य को जानने का प्रयासए ये दोनों की प्रवृत्तियां एक पल भी वर्तमान में रहने नहीं देती है।
जीवन भर जो भी संग्रह होता हैए जो स्मृतियां सहेज ली जाती हैए सब अप्रासंगिक हैए अब काम में आने वाला नहीं है। व्यर्थ का हो चुका है। पर हम उसे सहेजकर रखते हैं। वही हमारी अवधारणा बन जाती है। वही अनावश्यक विचारणा को जन्म देती है। ण्ण्ण्व्यर्थ का बोझा ही हमारी स्मृति है। स्वामी जी कहा करते थे.ष्स्मृति ही पाप है।ष्
बहुत कठिनाई आती हैए जब स्वप्न में हम जगने लगते हैंए प्रायः स्वप्न जो देखता हैए वह स्वप्न में तो जगता हैए पर जाग्रत में विदा हो जाता है। ण्ण्ण् स्वप्न याद ही नहीं रहता है। पर जब अभ्यासी का मन वर्तमान में रहने लगता है।
वह एक ही कार्य में बहुत देर तक रहने लग जाता हैए तब स्वप्न में भी उसके क्रमबद्धता आने लगती है। स्वप्न रंगीन आते हैं। कभी.कभी भविष्य के दर्शन भी होते हैं। उसकी स्वप्न में भी सजगता जग जाती है। ण्ण्ण् उसके स्वप्नए उसे जाग्रत अवस्था की तरह लगते हैं। तीसरा कदमए प्रगाढ़ निद्रा में होता है। गहरी नींद वहांए जाग्रति पूरी तरह वह एक ही कार्य में बहुत देर तक रहने लग जाता हैए तब स्वप्न में भी उसके क्रमबद्धता आने लगती है। स्वप्न रंगीन आते हैं। कभी.कभी भविष्य के दर्शन भी होते हैं। उसकी स्वप्न में भी सजगता जग जाती है। ण्ण्ण् उसके स्वप्नए उसे जाग्रत अवस्था की तरह लगते हैं। तीसरा कदमए प्रगाढ़ निद्रा में होता है। गहरी नींद वहांए जाग्रति पूरी तरह खो जाती है।
ण्ण्ण् हांए जाग्रति में भी तबए ण्ण्ण् सारे विचार खो जाते हैं। अचानक भीतर दर्पण ही रह जाता है। जहां कोई चित्र नहीं बनता। इन्द्रियांए द्वार नहीं बनाती। सामने व्यक्ति आ जाएए विचार आए. गएए पर भीतर कोई अनुगूंज नहीं रहतीए ण्ण्ण् तब यह जो सुषुप्ति की अवस्था हैए वह जाग्रत में भी घट जाती है।
ण्ण्ण् तीनों अवस्थाओं में एक सजगताए ण्ण्ण् शांत सजगता शेष रह जाती है। मात्र अस्तित्व का बोध रहता है।
देखाए स्वामी जी को देखा थाए ण्ण्ण् उस शांत सजगता में। तब यह ध्यान नहीं थाए ण्ण्ण् इतना ज्ञान भी नहीं थाए वे हैंए बस हैंए चैतन्य ही इनका केन्द्र होता है। स्वामी जी ने बहुत वर्षों पहलेए अपना दंड छोड़ दिया था। ष्सन्यासी जो भी मिलतेए चर्चा करतेए यह कैसा सन्यासी हैए न दंड हैए न हीं किसी शास्त्रीय विधान का आदर है। उनकी सारी अवधारणाएं गिर गई थीं। वहां दुख नहीं थाए ण्ण्ण् अभाव नहीं थाए न ही कोई पराश्रय का भाव थाए न ही हताशा थीए पायाए अपने प्रति पूर्ण यह अहसास था कि ष्वह हैए अपने स्वभाव में है। त्याग उनका खिले हुए फूल के समर्पण का था। जब सन्यासी हुए तब नौकरी में थे। अपने ऊपर पूरी तरह आश्रित थे।
ण्ण्ण् किसी प्रकार की कोई जिम्मेदारी नहीं थी। बस एक ही संकल्प था.
सन्यासए उन्होंने पूरी सजगता में सन्यास लिया था।
सन्यास लियाए तब पहला सवाल भोजन का आया था। स्वामी जी भिक्षा के लिए नहीं जाते थे। गुरु ने पहला सवाल यही किया था. वे मात्र उनके भोजन से एक रोटीए थोड़ी दाल या भाजी ले लेते थेए बसए ण्ण्ण् वह भी दिन में एक बारए
ण्ण्ण् फिर जब वहां से बाहर आएए ण्ण्ण् तब भोजन के लिएए मांगने के स्थान पर कुछ कार्य करते ही भोजन प्राप्ति का साधन बनाया। जंगल में आकर बच्चों को पढ़ाया। यहां सन्यासए पलायन नहीं था। नहीं जीविकोपार्जन का यह आधार था। न हीं संपत्ति का आदरए न हीं श्रेय काए ण्ण्ण् कहा करते थे. जब मर जाऊं तो एकांत में डाल आनाए वहां एक पत्थर भी नहीं हो। जो पहचान तक बता सकेए अपने प्रति इतनी तटस्थताए ण्ण्ण् विरल होती है।
ण्ण्ण् संसारए असार हैए उनका आप्त वचन था। जिससे सुख मिलता हैए उससे ही दुख भी मिलता है। हमारी अपेक्षा होती हैए ण्ण्ण् वह जब पूरी नहीं होती है तब शोक होताहै। व्यक्तिए वस्तुए परिस्थिति का चिंतन ही हमारी पराधीनता हैं। हम जो चाहते हैए वह दूसरे पर डालते हैंए वह पूरा करेए नहीं मिलता हैए दुख होता हैए मिलता हैए सुख मिलता है। सुख व दुख दोनों का भोक्ता मन हैए जो इन्द्रियों की तृप्ति व अतृप्ति से प्राप्त होता है। ण्ण् मन बाहर आश्रय तलाश करता है। वह उससे चाहता है कि वह उसे सुख देदेए पर कभी.कभी अप्राप्ति में दुख पाता है।
ण्ण्ण् सन्यासीए वहां उसे मात्र असार मानता हैए ण्ण्ण् जो ग्रहणकर्ता हैए वह वहां अब अनुपस्थित होता है। वह प्रभावित नहीं होता है। परन्तु जब भीतर संग्रह जमा रहता हैए बाहर से आया अतिथि वहां जगह न पाकरए बाहर से ही विदा हो लेता है। हम स्वामी जी से पूछते थे. ष्हमारी प्रगति हो रही हैघ् वे कहते अभी तो संग्रह जमा हैए बहुत भीड़ हैए हमें बुरा लगताए ण्ण्ण् परंपरा कहती हैए यह गुरु का कर्तव्य हैए वह शिष्य को जाग्रत करे। वह उसकी भीतर की गंदगी को हटाए। कई महात्मा मिलतेए वहां सुना जाता था कि यह तो गुरु का कार्य हैए आप सत्संग में आ जाएं फिर सब अपने आप हो जाएगा।
स्वामी जी से चर्चा होतीए वे बस हंस देतेए ण्ण्ण् जाओए हांए जाओए गुरु जो हैं वो तो तैयार बैठे हैं।ष्
जानाए अब जानाए विचार ही विकार है। भीतर की गंदगी तभी कम होती है। जब जो भीतर ग्रहणकर्ता हैए ण्ण्ण् वह मात्र साक्षी होने लग जाता है। द्वार खुले तो होते हैंए पर वहां दरवाजे पर कोई स्वागत नहीं करता है।
ण्ण्ण् शास्त्र कहता है.
चिन्मयम् चौत्सृष्टिदण्डम् सन्तताक्षि कमण्डलुम्।
चैतन्यमय हो कर सन्सार.त्याग ही दण्ड हैए ब्रह्म का नित्य दर्शन कमण्डलु है।
यहॉं संसार तो हैए आप भी संसार में हैंए पर संसार आप में नहीं है। अब कुछ छोड़ा नहीं जाता जिसे छूटना था वह स्वतः छूटता चला जाता है।
27
कर्म निर्मूल नं कन्था।ष्
कर्मों को निर्मूल कर जलना ही उनकी झोली है। उनके थेले में मात्र एक जोड़ी कपड़ा तथा शेविंग का सामान रहता थाए बस। यही एकमात्र संपत्ति थी। शायद ही किसी को विश्वास आए। पर हांए शास्त्र कहता हैए वहां कर्म का भार छूट जाता है। बोझा सारा उतर जाता है।
स्वामी जी गीता का श्लोक समझाते थे.
ष्शिप्रं भवति धर्मात्माष्ए कोई भी हो किसी भी जाति का होए कितना भी पापी क्यों न होए ण्ण्ण् वह सहज ही धर्मात्मा हो सकता है।
ण्ण्ण् धर्मात्मा वही हैए जिसका आचरण ही धर्म है। जिसकी अपनी कोई इच्छा अब शेष नहीं रही है। तेरी इच्छा पूरी होए ण्ण्ण् यही भावना है। वहां वह कर्ता नहीं रहा। मात्र कर्म होकर प्रकृति के कार्य में सहयोग कर रहा है।
ण्ण्ण् कर्ता जहां होता है। वहां अहंकार होता है। अहंकारए केन्द्र बिन्दु हैए घेरा बनाए चला जाता हैए रूकता नहीं है। वृत ही वृतए अहंकार बनाए चला जाता है। माया का पहला घेरा होता हैए फिर दूसरा ममता का होता है। ऋषि को हिरण का बच्चा मिल गयाए उन्होंने पालाए ध्यान सारा उसी में केन्द्रित हो गयाए माया आते ही ममता भी आ गई। ष्माया है जो है नहीं एक भ्रम हैए पर वह सतत हैए वहां क्रमबद्धता है। उसमें सारा सच प्रतीत होता हैए यही माया हैए उससे ममता पैदा होती है। यह मेरा है। ण्ण्ण् ममता में अहंकार विस्तार पाता हैए और ममता का फैलाव माया में होता हैए एक सम्मोहनए जिसमें हम जकड़ जाते हैंए उससे बाहर आना चाहते ही नहीं है।
पर जिसका अहंकार छूटने लगाण्ण्ण्
जिसने अपने भीतरए अपने भीतर के प्रति जो हर प्रकार का एकीकरण होता हैए उससे बाहर आना चाहाए उसकी ममताए ण्ण्ण् अपने आप कम होने लगती है। ममता के कम होते ही माया का सम्मोहन छूटने लगता है।
कम होनाए अहंकार को ही है। अभ्यासी का अहंकार भी सत्संग में बढ़ जाता है। वह छाती पर अपने समुदाय का
बिल्ला लगाता है। रंग.बिरंगी वेशभूषा धारण करता है। गुरू का अहंकार बढ़ जाता हैए मेरे इतने शिष्य हैं।इतने राजनेता मेरे पॉंव छूते हैं।
ण्ण्ण् तरह तरह के उपक्रम बढ़ते हैं।
ष्आत्मविश्वास और अहंकार पास.पास के शब्द है। आत्मविश्वास दूसरे को प्रभावित करना नहीं चाहता। वहां दूसरे की उपस्थिति भी नहीं है। पर जहां अहंकार है। वह हमेशा दूसरे को सामने रखकर खड़ा होता है।
ष्दूसरा ही ममता का जनक होता हैए वही माया का सम्मोहन है।
ष्शास्त्र कहता है. ष्मम माया दुरत्याए ण्ण्ण् इससे पार जाना कठिन हैए पर जो अपने भीतर उतर गयाए ण्ण्ण् अन्तर्मुखी हो गयाए वहां श्विराटश् स्वयं उस खाली जगह को भरने आ जाता है। ष्मामेव एवं प्रपद्यन्तेए ण्ण्ण् उस माम् की वहां शरणागति होती है। स्वामी जी के पास रहकर जाना थाए ण्ण्ण् शास्त्र वहां सचमुच आचरण से ध्वनित हुआ था। उनके छोटे.छोटे कदमए ण्ण्ण् उस उत्सव की तरह थेए जहां मात्र आनंद था। अभय था और गहरी शांतिए जो हर सामान्यजन को सहज ही उपलब्ध थी।
मायाममताहप्रार दहनम् श्माशने अनाहतांगी
श्मशान में जिस ने दहन कर दिए हैंए मायाए ममताए अहंकारए वही अनाहत अंगी. पूर्ण व्यक्तित्व वाला है।
शास्त्र कहता हैए बुद्धि का पुत्र अहंकार है। सारे विकार अहंकार का ही विस्तार हैं। अहंकार की शक्ति ममता है। यह मेरा हैए मेरा जितना बड़ा होता जाताए है।अहंकार उता ही फैलता जाता है। अनाहतांगीए जिसका एक भी अंग आहत नहीं हुआ हो। जो पूर्ण हैं। जिसके भीतर समग्रता है। कोई विभाजन नहीे। जो पूरा है। बाहर .भीतर एक है।
विवेकानंद ने परमहंस का इम्तहान लिया थाए सिक्का चादर के नीचे रख दिया थाए वे बैठें चौंक कर उठ गए। वहॉं निशान पड़ गया था। चादर हटायी सिक्का दिख गया।
विवेकानंद जानना चाहते थे क् िक्या वास्तव में परमहंस धातु का स्पर्श ही नहीं करते हैं।
वह परमहंस हैए वहॉं कथनी .करनी एक हैए वह पूर्ण है।
यह तभी संभव होपाता हैए जब माया ममता और अहंकार विसर्जित होजाते हैं।
मैं जीवन भर अपने गुरुदेव से प्रश्न पूछता रहा ए वे निरंतर बिना उकताए हुए उत्तर देतेरहे। जब पीपल के पत्ते की तरह मेरे भीतर के सारे पत्ते झड़ गए ए तब उस विराट शून्य में पाया अंतस में मेरे गुरु ही जन्मजन्मान्तर से प्रकाशित हो रहे हैं एयही समर्पण योग है। जहॉं उस प्रसादम की ही झलक मिल पाती है। जो गीता का सार है।
28
निस्त्रैगुण्य स्वरूपानुसन्धानम् समयम् भ्रान्ति हरणम्।
कामादि वृत्ति दहनम्।
काठिन्य दृढ़ कौपीनम्।
चिराजिनवासः।
अनाहत मन्त्रम् अक्रिययैव जुष्टम्।
स्वेच्छाचार स्वस्वभावो मोक्षः।
इति स्मृतेः।
परब्रह्म प्लव वदाचरणम्।
त्रय गुण रहित स्वरूप के अनुसन्धान में तथा भ्रान्ति के भ´जन में समय व्यतीत करना।
काम.वासना आदि वृत्तियों का दहन करना।
सभी कठिनाइयों में दृढ़ता ही उन का कौपीन है।
सदैव संधर्षों में जिन का वास है।
अनाहत जिन का मन्त्र और अक्रिया जिन की प्रतिष्ठा है।
ऐसा स्वेच्छाचार रूप आत्मस्वभाव रखना. यही मोक्ष है।
और यही स्मृति का अन्त है।
परब्रह्म में बहना जिन का आचरण है।निस्त्रैगुण्य स्वरूपानुसन्धानम् समयम् भ्रान्ति हरणम्।
त्रय गुण रहित स्वरूप के अनुसन्धान में तथा भ्रान्ति के भ´जन में समय व्यतीतकरना।
सबसे कठिन यही होता है। हम सामान्यतः तीनो गुणो के साथ रहते हैं।भला बनना चाहते हैं। सतोगुण की महत्ता है। पर ऋषि कहते हैए वह तो जो चौथा है एवह वहॉं है। गीता कहती हैए यह मेरी माया हैए यह दुरत्या हैए इससे पार जाना कठिन हैए बस श्मामश् की शरण ही इससे बाहर ले आती है।
यहॉं तीनो गुण ही नहीं हैंए जहॉं गुणो की सत्ता हैए वहॉं अहंकार है। जहॉं सतोगुण हैए वहॉं अहंकार प्रबल है।
सन्यासी वही हैए जो इस चौथे आयाम में आना चाहता है।
वहॉं करना क्या हैघ् उसे भ्रम को ही दूर करना है।
भ्रम की सत्ता रहती हैए अपेक्षा में ए सन्यास का जन्म ए पलायन में नहीं हैए यह जो कल्पना का महल हैए उसके ढह जाने पर घटता है।
भ्रम की सत्ता हमेशा श्परश्की मौजूदगी में होती है। कोई हैए जो सहारा देगा। जब भ्रम गिर जाता हैए तब रस्सी में सर्प नहीं दिखता। भ्रम मानसिक विचारों का गठजोड़ है। जब भ्रा्रंति हटती हैए तभी तीनो गुणों के दबाब से चेतना मुक्त होजाती है।
ए
कामारि वृत्ति दहनम्
ण्ण्ण् जो सिद्ध हैए उनका आचरण विकार रहित होता है। वहांए किसी भी प्रकार की गंध तक नहीं आती। स्वामी जी कहा करते थे. बालक जो जन्म लेता हैए अपने साथ जो संपत्ति लाता हैए वह उसका मनए और कामए क्रोधए लोभए मोहए मत्सर शोकए छः रिपु साथ लाता है। ष्मम. माया दुरात्याए ण्ण्ण् देने वाली माया त्रिगुणमयी है। सन्यासी जो हैए वह जानता हैए बाह्य में जो संपत्ति हैए वह नाशवान है। जब ये हाथ ही नहीं रहेंगेए तब पानी पर खिंची लकीरों की तरह ही बाहर की भौतिक संपत्ति का महत्व हैघ् दैवी संपत्ति उसके भीतर ष्विराटष् का प्रादुर्भाव होना है। जब भीतर का संग्रह कम होने लगता हैए ण्ण्ण् तब उसके भीतर के द्वार खुलते हैं। प्रकाश और नादए ण्ण्ण् बाहर से भीतर और भीतर से बाहर की यात्रा के पथिक हैं। मन जब एक ही क्रिया के साथ बहुत देर तक रहने लगता हैए किंचित मात्र भी विपरीत दिशा में नहीं जाता हैए तब नाद सुनाई पड़ता है। यह अनाहत ध्वनि है।
ण्ण्ण् चित्त की शुद्धि अपरिहार्य है। अभ्यासी का अभ्यास विकार रहित ही होना है। तब हृदय गुहा में वह शांत ज्योति जलती हैए ण्ण्ण् जिसमें यह छः रिपुण्ण्ण् भस्म होने लगते हैं।
परमहंस कहा करते थेए ण्ण्ण् यह अवस्था बीज के भुन जाने जैसी होती है। भुना हुआ बीज दुबारा अंकुरित नहीं हो पाता है।
ण्ण्ण् पर इससे पहलेए
ष्मम माया दुरत्याष्ए ण्ण्ण् यह जो मेरी माया हैए ण्ण्ण् मेरा ही सम्मोहन है। जो बाहर निरन्तर मैं ही प्रक्षेपित करता हूं। ष्जोष् है नहीं। यह दुनियाए जैसी मैं चाहता हूंए वैसी ही दिखाई पड़ती है। मेरी ही मनोहारी कल्पना का विकास है। मनोराज्य मेरा ही सृजन है। यही माया है।स्वामीजी कहा करते थेए ष्जितना अच्छा बुरा होता हैए उतना ही बुरा भी अच्छा हो जाता हैए अच्छे होने के चक्कर में मत पड़ोए ण्ण्ण् तब उनकी बात समझ में नहीं आती थी।
ष्भला तो करना ही चाहिएष्ए यही सोच रहता था। ष्स्वामी जीए स्वाभाविक कर्म की बात कर रहे थे।ष् अशुभ के भी पार जाना हैए तो शुभ के भी पार जाना हैए ण्ण्ण् जहां मेैं कहता हूंए प्रकृति या अंतःप्रेरणा कार्य करवाती हैए ण्ण्ण् तो शुभ कहीं छूट नहीं जाता हैए यह सृजन प्रकृतिजन्य कर्म हैए ण्ण्ण् यहां शुभ तो होता हैए परन्तु उसकी छाप नहीं बनती है।
वर्तमान में किया गया कर्मए सदैव शुभ ही होता हैए और वह शुभ की धारणा के बाहर भी होता है। वहां स्मृति नहीं है। उसका दबाव नहीं है। वहां अहंकार नहीं होता। छाप अहंकार बनाता है।
ण्ण्ण् वहां कोई भ्रम नहीं होता। भ्रम हमेशा दूसरे के साथ होता है। वह क्या कहेगाए क्या करेगाए ण्ण्ण् हम सदा दूसरों की ही भाषा में सोचते हैं। यही वास्तविक भ्रम है। तब रस्सी में सांप दिखाई देता है। जहां वास्तविक अवधान हैए वहां दूसरा पहले ही तिरोहित हो चुका है।
अपनी माँ की मृत्यु के बाद 1938 में स्वामी जी सन्यास लेनेए ऋषिकेश गए थे। वहां शिवानंद जी ने कहा थाए इन्दौर जाना होगा। उन्होंने कहाए ष्मैं तो सन्यास लेने आया हूं।ष्
शिवानंद जी बोले. ष्मैं असत्य नहीं बोलताए अभी समय नहीं आया हैए इन्दौर जाना होगा।ष्
स्वामी जी बता रहे थे. ष्तब इन्दौर कहाँ हैंए यह भी पता नहीं था। टिकिट लिया। महू पहुंचा। कहां जाना हैए कुछ पता नहीं। कोई परिचित नहीं। तब एक मुसलमान फल वाले के यहां काम किया। उसका हिसाब लिखता था। वहीं छावनी का ठेकेदार आ गया। उसने मुझे देखाए ण्ण्ण् बोला. तुम्हें अंग्रेजी आती हैघ् मेरे हांए कहने परए मुझे छावनी में ले गया। मिलट्री केन्टीन में काम कियाए ष्ब्रिगेडियर को पता लगाए मैं पढ़ा लिखा हूंए उसने कहा यहां से जाना होगा।
ण्ण्ण् वहां से ण्ण्ण् इन्दौर पहुंचेए वहां भंडारी मिल में स्टोरकीपर बने। इन्दौर में स्वामी राम कश्मीर से आए हुए थे। राम मंदिर में चीफ जस्टिस जामेकर जी से मुलाकात हुयी। वे अपने साथ ले गए। वहां पांच वर्ष रहे। देश आजाद हुआए तब वहां से भी बिना कुछ कहे एक झोला लिए खंडवा होते हुए ऋषिकेश पहुंच गए। स्वामी शिवानंद जी नहीं रहे थे। फिर हरिद्वार में आकर सन्यास लिया।
े स्वामी कंथा मेंए स्पष्ट है कि कहीं सुरक्षा की चाह नहीं है। कोई भ्रम न तो अपने बारे में हैए न जगत के बारे में। बंबई विश्वविद्यालय का ग्रेजएट जो विल्सन स्कूल में पढ़ा होए तीन या पांच रूपये की नौकरी पर फल वाले का हिसाब लिख सकता होए यह कल्पना भी असंभव है। पर जिसने नियति को सब सौंप दिया वहॉं कल की प्रतीक्षा नहीं होती।
ण्ण्ण् जब स्वामी जी ने यह कथा बताईए तब बुद्धि उलझकर रह गई। और भी काम कर सकते थेघ् शिवानंद जी ने इन्दौर जाने के बारे में ही तो कहा थाण्ण्ण् पर जाकरए इस तरह रहना होगाए अपनी योग्यता के अनुसार कार्य भी तो तलाशा जा सकता थाघ्
ष्स्वामी जी इन प्रश्नों पर मौन ही रहे। जो हैंए वह यह हैए सन्यासी वेश धारणा के संकल्प पूर्व में हीे हो चुके थे। वहां अपने बारे में कोई भ्रम नहीं था। पर हमारे पास अपने संशय थेए हम संशयग्रस्त थेए पर वे मुक्त थे।
ण्ण्ण् वहां कोई विकार नहीं होता। बीज भुन जाता है। उसकी अंकुरण क्षमता समाप्त हो जाती है।
ण्ण्ण् वहां फिर सुरक्षा किस तरह की। कोई वांछा ही नहीं होती। जो वर्तमान हैए वहां है। स्वामी जी कहा करते थे. ष्आप कोई सी भी साधना करें उसके फलस्वरूप जो प्राप्त होता हैए वह गहन आत्मविश्वास है।ष्
ण्ण्ण् दीनदयाल जी ने पुस्तक लिखी हैए श्स्वामी कथाश्ए उसमें उनके जीवन की अनेक घटनाओं का जिक्र आता है। ष्वे कहा करते थे. ष्भागो मत सामना करोष्
ण्ण्ण् वहां न धन थाए न बैंक बैलेंसए ण्ण्ण् न आश्रम व्यवस्थाए ण्ण्ण् पर कमी किसी वस्तु की नहीं रही। दस व्यक्ति आए या हजार सभी की आवश्यताओं की पूर्ति वहाँ होती रही।
ण्ण्ण् बाहर का बलए भ्रम पैदा करता है। हम उसे ही तलाश करते रहते हैं। पर भीतर का बलए अपना होता है। वहां किसी प्रकार की कोई असुरक्षा नहीं है।
ण्ण्ण् वे न तो अभाव में थेए न प्रभाव थेए वहां मात्र उनका स्वभाव रहता है। जो सिद्ध हैंए वे अपने स्वभाव में है। स्वामी जी प्रायः. तुकाराम का अभंग सुनाया करते थे. ष्न निन्दे न वंदेष्ए तब हम न किसी की निंदा से आहत है न प्रशंसा से प्रभावित हैंए ण्ण्ण् अपने स्वभाव में रहना ही धार्मिक होना है। ण्ण्ण् जहां अहंकार विदा हो जाता हैए वहां भय नहीं हैए आसक्ति नहीं है। जहां अपेक्षा नहीं है। छःओं रिपु अपनी अर्थवत्ता खो चुके हैं। वहां ष्आत्मष् जग उठता है। यही सन्यासी का आवास हैए गेह हैए जहां विदेह रहते हैं।
शास्त्र के कथन बहुत बाद मेंए हाथ में आएएजब तक समझ पाते ण्ण्ण् तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
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हांए हम उनके साथ अट्ठाईस साल साथ रहेए ण्ण्ण् वे हैंए सिद्ध हैंए ण्ण्ण् सहज हैंए उनकी बातें सुनते रहेए ण्ण्ण् परन्तु कभी भी उन्होंने अहसास तक नहीं होने दिया कि वे हमसे बहुत.बहुत बड़े हैं। वे परमहंस हैं। निवार्ण उपनिषद अज्ञात परमहंस का कथन हैएएपर स्वामीजी इस संदर्भ में न जाने क्यों चुप ही रहे।
शास्त्र कहता है.
काठिन्य दृढ़ कौपीनम्।
चिराजिनवासः।
सभी कठिनाइयों में दृढ़ता ही उन का कौपीन है।
सदैव संघर्षों में जिन का वास है।
स्वामीजी का एक ही आदेश थाए श्कभी पोलापन मत दिखाना ए कैसी भी परिस्थितियॉं आएॅं सामना करनाएश् एक बार पत्र भी लिखा था ए बार.बार होरहे तबादले से मन अशांत थाए लिखा था एश्तुम्हारे भीतर आत्मविश्वास की कमी हैए सामना करोएश् कहीं हाथ मत फैलानाश्।
तुम्हारी अपनी ताकत तुम्हारे ही पास हैए यह उनके पास रहकर सीखा था। अपनी ताकत का इस्तेमाल करना सीखोए बाहर का दबाब आएए चट्टान की तरह हो जाओए लहरें आएंगी ए टकराकर लौट जाएंगी। भीतर का कंपन बढ़ेए बर्फ की शिला रख देनाए लहरें ही उठ नहीं पाएंगी।
संसार क्या हैघ् तुम्हारे ही मन का बाहर प्रक्षेपण है। हम जैसा सोचते हैं ए वैसा ही वह दिख जाता है। मन को बाहर से सिमेटना ए वर्तमान में रहने का पहला चरण है। विचार ही वस्तुमें बदल जाता है।
स्वामीजी कहा करते थेए आज सन्यासी सबसे अधिक सुरक्षा चाहता हैए सबसे अधिक भयभीत हैए गृहस्थ से अधिक पैसे पर उसकी पकड़ है।
स्वामीजी के पास रहकर शास्त्र का अर्थ समझा थाए वे स्वयं अनिकेत थे। कहीं कोई सुरक्षा नहींए नहीं कोई धनए न कोई पर्सए न बैंक खाताए। वहॉं मानो प्रकृति ही स्वयं उनके कार्य करने में सहयोगी बन गई है।
चिराजिनवासः।
सदा संघर्षो में ही उनका वास है। स्वामीजी की कुटिया में दरवाजा हमेशा खुला रहता था। सभी के लिए। वहॉं पहले बिजली भी नहीं थी। कोई भौतिक सुविधा नहीं थी। मीलों पैदल चलते थेए जो आहार मिल गया पालिया। एक ही बार आहार लेते थे। बाहर.भीतर खुलापन था। सब समय एसबके लिए।
अनाहत मन्त्रम् अक्रिययैव जुष्टम्।
स्वेच्छाचार स्वस्वभावो मोक्षः।
अनाहत जिन का मन्त्र और अक्रिया जिन की प्रतिष्ठा है।
ऐसा स्वेच्छाचार रूप आत्मस्वभाव रखना. यही मोक्ष है।
संभावना हैए ण्ण्ण् वहां वह उपस्थित हो जाता है।
रहस्य यही हैए ण्ण्ण् गुरु ही शिष्य की खोज करते हैं. लोकाचार यही हैए शिष्य गुरु को ढूंढ़ते रहते हैं। गुरु भी चेले बनाते जाते हैं। सद्गुरु जो हैंए ब्रह्मनिष्ठ जो हैंए वे कभी शिष्य नहीं बनाते।यह वह मंत्र हैए हम जिसे नाद भी कहते हैंए यह घ्वनि होठों से नहीं निकलतीए नहीं यह मध्यमाहैए जो कंठ से उच्चरित हैए नहीं यह मानसिक हैए यही परा का द्वार है। यह अनाहत है। बस मन जब शांत होजाता हैए तब यह अनवरत सुनाई देती है। इसकी चोट सीधी हमारे अनाहत चक्र पर होती हैए जहॉं से कुंडलिनी खुलती हैै। यह सन्यासी का मंत्र है। यह बिना बनाया हुआ मंत्र है। सन्यासी इसी की खोज में निकला हैं । यह सहज स्वाभाविक मंत्र है।
हॉंए यह सही है ए एक बार आने केबाद यह जाती नहीं। यह अपने आप आपको अंर्तर्मुखी बना देती है। मन इसके साथ जुड़ गया ए यह आपको अपने आप भीतर उस सागर के पास ले जाएगी ए जहॉं से यह लहरें उठ रही है। तब जिसे छूटना है ए वह स्वतः हो जाता है।
वह अक्रिया में जीता है। मन सहित क्रिया ही कर्म बन जाती है। जिसका भोग बनता है। अक्रिया में मन अनुपस्थित है। मन की पहचान है। विचारणा जो निरन्तर बनी रहती है।
ऐसा स्वेच्छाचार रूप आत्मस्वभाव रखना. यही मोक्ष है।
यहॉं अक्रिया पहले प्राप्त हो चुकी है। अहंकार विदा हो चुका है। जो घट रहा हैए वह सहज है। वह निसर्ग है। स्वामीजी कहा करते थेए मैं कुछ नहीं करता प्रकृति करा देती है। अंतः प्रेरणा ही मार्गदर्शक बन जाती है।
हमने अभीतक स्वेच्छाचारी को अहंकारी रूप में पाया हैए यहॉं जो सन्यासी हैए वहॉं विकार ही नही है। अकिया है। पर साथ ही प्रकृति की ही कामना क्रियारत है। वह मालिक की रजा में संतुष्ट है। यही उसकी मौज है।
वे तो बस उस लहर की तरह हैंए जो परमात्मा के अगाध सरोवर में बस बह रही हैं। जिनकी अपनी कोई निजि आकांक्षा शेष नहीं रही है।
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ब्रह्मचर्य शान्ति संग्रहणम्।
ब्रह्मचर्याश्रमैऽधीत्य वानप्रस्थाश्रमेऽधीत्य स सर्वविन्यासम् संन्यासनम्।
अन्ते ब्रह्माखण्डाकारम् नित्यम् सर्व देहनाशनम्।
एतत्रिर्वाणदर्शनम् शिष्यम् विना पुत्रम् विना न देयम्।
इत्युपनिषत्।
ब्रह्मचर्य और शान्ति जिन की सम्पत्ति या संग्रह है।
ब्रह्मचर्याश्रम मेंए फिर वानप्रस्थाश्रम में अध्ययन से फलित सर्व त्याग ही संन्यास है।
अन्त में जहाँ समस्त शरीरों का नाश हो जाता है और ब्रह्मरूप अखण्ड आकार में प्रतिष्ठा होती है।
यही निर्वाण दर्शन हैए शिष्य या पुत्र के अतिरिक्त अन्य किसी को इस का उपदेश नहीं करनाए ऐसा यह रहस्य है।
निर्वाण उपनिषद समाप्त।
ब्रह्मचर्य शांति संग्रहणम्श्
ब्रह्मचर्य और शांति जिनकी संपत्ति या संग्रह है। ण्ण्ण् ब्रह्मचर्यए ब्रह्म ही जिनकी चर्या है। बौद्धों में तथा सिद्धों में चर्यागीत हैं। ण्ण्ण् चर्याए हमारा आचरण है। ष्ब्रह्म ही जिनकी चर्या हैए उनका आचरण है। ण्ण्ण्ण् हमारे यहां धर्म ही आचरण है। ब्रह्मानुभूति में जो हैए ण्ण्ण् वहां अस्तित्व जो हैए अपनी पूर्णता में प्रकट होता है। वहां रहती हैए शांति।
शास्त्र कहता है. जिनके अंतःकरण शुद्ध हैंए राग.द्वेष से रहित हैंए जो अपने वश में की गई इन्द्रियों के द्वारा विषयों को प्राप्त करते हैं। इन्द्रियां द्वार हैए ण्ण्ण् विषय से जुड़ाव मन से होता है। मन अगर नियंत्रण में हैए तो स्पर्श नहीं होगाए स्पर्श नहीं होगा तो संवेदनाएं भीतर तक नहीं पहुंचेगी। संवेदनाओं का वाहक मन है। इस अभ्यासी को प्रसाद की प्राप्ति होती है। जिसे यह ष्प्रसादष् प्राप्त होता हैए उसके सुख.दुख छूट जाते हैंए उसके अंतःकरण को द्विव्य प्रसन्नता प्राप्त होती है। वह शांति है। ण्ण्ण् शांतिए ण्ण्ण् भांग पीकरए नशा करकेए अपनी संवेदनाओं को शिथिल करके भी प्राप्त की जा सकती है। स्वामी जी कहा करते थे.मन की शांति नहींए शांत मन होना चाहिए।
ष्जो सिद्ध है. वहां शास्त्र कहता हैए उनकी संपत्ति शांति है। स्वामी जी कहते थे. मन का नाश नहीं होताए मन का लय कहां होगाघ् वह तो उर्जा हैए गति हैए पर जब नियंत्रण में आती हैंए तब मन कहीं दूर रखा रहता है। चाहाए सजग हुआए संबंध जुड़ जाता हैए अन्यथा संबंध टूटा हुआ रहता है। शास्त्र में कहा है. मात्रा स्पर्शस्तु कौन्तेयए ण्ण्ण् वहां विषयों तथा इन्द्रियों का संबंध टूट जाता है। रहेंगे सभीए ण्ण्ण् पर अब समझाने के लिए कहा जाता हैए ण्ण्ण् वह चट्टान की तरह हो जाता हैए विषयों की लहरें टकराती हैए पर वे टकरा.टकराकर लौट जाती हैए ण्ण्ण् यह अवस्था होती है। यही शांति है।
सन्यासी के झोले मेंए यही संपत्ति हैए शांति और ब्रह्म की क्रियाशीलता जो प्रकृति हैए उसके साथ सतत जागरूकताए ण्ण्ण् वही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य मात्र एक इन्द्रिय पर निग्रह ही नहीं है। यहां आने से पूर्वए ण्ण्ण् पहले ही संबंध टूट जाता है। यही वास्तविक ब्रह्मचर्य है।
ब्रह्मचर्याश्रमैऽधीत्य वानप्रस्थाश्रमेऽधीत्य स सर्वविन्यासम् संन्यासनम्।
अन्ते ब्रह्माखण्डाकारम् नित्यम् सर्व देहनाशनम्।
ब्रह्मचर्याश्रम मेंए फिर वानप्रस्थाश्रम में अध्ययन से फलित सर्व त्याग ही संन्यास है।
अन्त में जहाँ समस्त शरीरों का नाश हो जाता है और ब्रह्मरूप अखण्ड आकार में प्रतिष्ठा होती है।
स्वामीजी की बचपन से ही सन्यास ग्रहण की तीव्र इच्छा थी। पर सन्यास पूज्य माताजी के देहावसान के बाद 36 वर्ष की आयु में लिया। वे सन्यासियों के आश्रम में नहीं ठहरते थे। सामान्य गृहस्थों के बीच वे रहे। उन्हों ने अपनी देह लीला भी गृहस्थ के घर में ही समाप्त की। किसी को उन्होंने सन्यास धारण के लिए प्रेरित नहीं किया। ब्रह्यचर्य और शांति ही उनकी सम्पदा थी। परन्तु वे परंपरागत मार्ग को मानकर जीवन जीने के लिए प्रयत्न पर हमेशा बल देते थे।
कहा करते थे ए एक करोड़ सन्यासी गृहस्थों पर ही टिके हुए है। गृहस्थ वही हैए जो संसार के सभी काम करता हैए और ईश्वर को भी पुकारता है। सन्यासी का तो काम वही हैए पर वह अपने ही काम में उदासीन है। कहा करते थे जब गृहस्थी की जिम्मेदारियॉं पूरी होजाएॅंए तब नई मत ओढ़ना। वानप्रस्थ का मतलब है। अब तक जो मुंह संसार की तरफ थाए उधर पीठ होगई। परमात्मा की तरफ मुंह होगया। यहीं आकर सन्यास फलित होगा। सन्यास कुछ नया पकड़ना नहीं हैए अब तक जो पकड़ रखा थाए उस पकड़ का ढीला पड़ जानाहै। छोड़ने की चिन्ता मत करना ए जिसे छूटना हैए वह स्वतः छूटता चला जाएगा।
अन्ते ब्रह्माखण्डाकारम् नित्यम् सर्व देहनाशनम्।
अन्त में जहाँ समस्त शरीरों का नाश हो जाता है और ब्रह्मरूप अखण्ड आकार में प्रतिष्ठा होती है।
उपनिषद कह रहा हैए अंत में सभी शरीरों का नाश हो जाता है। यह तभी संभव हो पाता है। जब किसी प्रकार की कोई वासना ही नहीं बचे। स्वामीजी कहा करते थेए भीतर का कोठा तो पूरा भरा हैए होगा क्याए पहले खाली करना सीखेाए यही संस्कार हैए जो निरन्तर जमा करता जाता हैए पहले नया जमा होना बंद होए
फिर जो संग्रह हैए उसका कम होना शुरु होए जब जारहे थेए उस रात को एक सज्जन आए थेए उनके सिरहाने 100 का नोट भेंट में रख गए। कुछ देर बाद स्वामीजी का ध्यान गया ए यह क्या हैए वे चौंके ए रात को ही कहाए उन्हें देकर आओए अब सब काम समाप्त है। यहॉं कोठा खाली है। सुबहचिकित्सक ने कहा आप पूरी तरह स्वस्थ हैं। आप प्रवास कर सकते हैं। स्वामीजी ने अपने शरीर की पूरी जॉंच कराई घर आए। परी सजगता में बात करते हुएए चिर प्रवास पर चले गए।
हॉंए तभी जाना संस्कार क्षय संखारा लेने से नहीं होता। यहॉं वृत्तियॉं पूरी तरह शांत हो जाती हैं। संग्रह ही समाप्त हो जाता है।स्वामीजी कहा करते थेए श्नमक का पुतला सागर का पता लगाने चला हैए क्या कह पाएगाघ् कभी संत कबीर ने कहा थाए
श्हेरत हेरत हे सखी कबिरा रहा हेराइए
समुद समानी बुंद में यह तत कहा न जाइ।श्
सच हैए स्वामीजी का सानिध्य नही मिलता तो शास्त्र मात्र पुस्तक में ही रह जाताएउन्होंने साथ रहकर शास्त्र की जीवन्तता को ही प्रमाणित कर दिया था।
31 अंतिम अध्याय
आदरणीय मित्रो ए आपकी प्रेरणा से यह कृति एक लेखमाला के रूप में पूरी हुई । मित्रों के आग्रह पर स्वामीजी कृत अनंतयात्रा को समझने के लिए उनके द्वारा दिए गए संकेत ए कि तीनो अवस्थाओं में एक्य या निरंतर सजगता बनी रहे ए इसके लिए तीन सीढ़ियां में ब्रह्मनिष्ठ गुरु ए आत्मकृपा और ऊर्ध्वकुंभक प्राणायाम की समझ और प्रयोग अपरिहार्य है।पर उससे अधिेक महत्वपूर्ण है ए तीनो का एकीकरएा रूप निरंतर वर्तमान में रहनाए एक जीवन जीने की शैली है। मन पूरी तरह उस समय ए समय में ही रहे। उसका भटकाव नहीं रहे।
ब्रह्मनिष्ठ गुरु की प्राप्ति अपने ही अंतःकरण में होती है। यह कबीर के शब्दों में सती का ही भाव है। एक निष्ठता जब अपने अंतस में ठहरती है। वहीं हृदय खुल जाता है।
एक कविता की पंक्ति है ए मन का दर्पण मांजा ए एक दिखे दिनो ए वही हीर वही रांझाा। दिल में जब स्वीकृति गहन हो जाती है। तब वही तो कल तक बस सन्यासी ही थे ए अचानक अपने ही गुरु रह जाते हैंए ब्रह्मनिष्ठ गुरुए जो हमारे बीच ही थे ए हमने उन्हें देखा ए हम उनके साथ रहे ए यही हमारे जीवन की अननरूतम संपत्ति हैे।
लोग बहुत खुश थे ए अपने अहंकार में अभिभूत थे ए स्वामीजी ने किसी को षिष्य नहीं बनाया ए पर वे भूूल गए ए स्वामीजी ने कहा आप ए आपको किसने रोका है ए चयन तो आपका है। पर हम ही उलझन में रहे ए हम ही उनके सामने ही दूसरों से खुले आम मार्ग दर्शन मांगते रहे।पर अचानक उनके महानिर्वाण के बाद ए अन्य गुरुओं की उनके ही गुरुकुल में गुरुपूजा तक करने में अचानक तत्पर ही होगए।
अनंतयात्रा में शिष्य बनने की योग्यता ही आवश्यक है। जहॉं शिष्य होता है ए वहॉं गुरुतत्व अपने आप उसकी ही प्राणउर्जा बन जाता है। उपनिषद कार अपने उपनिषद के अंत में यही कह रहा है.
शिष्यं विना पुत्रं विना न देयम्।ष्
शिष्य या पुत्र के अतिरिक्त अन्य किसी को इसका उपदेश नहीं करना।
यह शास्त्र की आज्ञा है। यह रहस्य है।
ईशोपनिषद के ऋषि अर्थवा हैंए उन्होंने अपने पुत्र को विवाहोपरांत जो ज्ञान दिया थाए ण्ण्ण् वह ईशोपनिषद है।
निर्वाण उपनिषद के अंत में आज्ञा हैए यह निर्वाण उपनिषद हैए यह रहस्य हैए शिष्य या पुत्र के बिना किसी को उपदेश नहीं करना।
ण्ण्ण् सन्यासीए ण्ण्ण् शिष्य बनाते हैंए परंपरा चलाते हैंए मध्यकाल के बाद में कबीरदास जी के आने के बाद संत मत बढ़ा। गुरुमत फैलते चले गए। वर्तमान में ष्ध्यानमार्गियों की बहुत बड़ी जमात है। वे सब ज्ञान का वितरण करते हैं। पहले छापेखाने नहीं थे। शास्त्र तो मात्र कथन का एक संग्रह है। दवा की दुकान है। पचासों तरह की बोतलंे हैं। हजारों प्रकार की गोलियां है। पर कौन सी आपकी दवा हैए ण्ण्ण् यह चिकित्सक जानता हैए वह लिखता है। फिर विक्रेता देता है। गलत दवा कहीं से भी हो जाएए हानि ही पहुंचाती है। ण्ण्ण् इसीलिए शास्त्रए उपयोगी तो हैए ण्ण्ण् परन्तु अभ्यासी की योग्यता महत्वपूर्ण है। ण्ण्ण् अभ्यासी साधारणतया जिज्ञासु ही होता हैए कुछ आर्त्त होते हैं। वे दुख मिटाने के लिए धर्मए की धर्माचायों की शरण में आते है। जिज्ञासु अपनी बौद्धिक जिज्ञासा को शांत करना चाहता है। कुछ इनसभी चतुर होते हैंण्ण्ण् उनकी भूख.प्यास बड़ी होती है। वे श्रेय और प्रेय का सुगम मार्ग मानकर इधर आते हैं।
ये सब शिष्य नहीं है।
शिष्य के अंतःकरण से राग.द्वेष का बीज पूर्व में जल जाता हैए वह पूरी तरह ज्ञान की पिपासा में तत्पर है। स्वामीजी कहा करते थे. ष्यहां सो टका देना होता है। ज्ञान के प्रति समर्पण सौ टका होता है। मीराबाई ने क्यारी शब्द का प्रयोग किया है। बिच.बिच राखूं क्यारीए यह क्यारी यह शिष्य की आधार भूमि होती है। जहां शिष्य होता हैए वहां गुरु स्वयं उपस्थित हो जाते हैं। यही प्रकृति की आज्ञा है। स्वामी जी ने अनंतयात्रा में कहा हैए वहां नीलकंठए कुंभ से मिलता है। अपने प्रश्नों का उत्तर वह कुंभ से चाहता है। कुंभ का कथन है. ष्ष्तुम्हारा मार्गदर्शन करूंए यही लक्ष्य थाए तुम्हारा विवेक जाग्रत हुआ हैए ण्ण्ण् इसके बाद मेरा शरीर रहे अथवा नहींए यह महत्वपूर्ण नहीं है।ष्
गुरु के पास देने को जो शक्ति हैए वह विवेक है। विवेक मात्र शुभ.अशुभ के बीच भेद को विवेचन कर निर्णय करने की क्षमता का नाम नहीं है। यहां ष्विवेक. आत्मा की महान शक्ति है। जहां अस्तित्व हैए गति हैए ऊर्जा हैए चेतना हैए यह सजग प्रकृति है। गुरु अपने शिष्य के विवेक को जाग्रत करके ही अपने कार्य की पूर्णता प्राप्त करते हैं।
शास्त्र कहता है. शिष्य को या पुत्र कोए ण्ण्ण् पहला हक शिष्य का हैए ण्ण्ण् दो शब्द हैंए बाप और पिता। परमात्मा को भी पिता कहा हैए गुरु को भी पिता कहा जाता है। एक बीज का रोपण ष्बापष् करता है। दूसरा बीजए गुरु बोते हैं। वह विवेक और वैराग्य से शिष्य की मनोभूमि को सही करकेए ण्ण्ण् अनुकूल समय पर ष्जिज्ञासाष् का बीजारोपण करते हैं। वहीं शिष्य की स्वीकृति होती है।
शिष्य बनाए नहीं जाते। यह कोई पाठशाला नहीं होती। यह तो अदृश्य का लेख हैए जो शून्य की भिति पर लिखा रहता है। गुरु बांचता हैए ण्ण्ण् जहां शिष्य होने की संभावना हैए ण्ण्ण् वहां वह उपस्थित हो जाता है। रहस्य यही हैए ण्ण्ण् गुरु शिष्य की खोज करते हैं. लोकाचार यही हैए शिष्य गुरु को ढूंढ़ते रहते हैं। गुरु भी चेले बनाते जाते हैं। सद्गुरु जो हैंए ब्रह्मनिष्ठ जो हैंए वे कभी शिष्य नहीं बनाते। वे इस परंपरा के चक्कर में नहीं पड़ते। पूर्व में कहा गया हैए ण्ण्ण् वहां शांति हैए ब्रह्मचर्य हैए वही उनकी संपत्ति है। जो आश्रम हैए जो खेत हैंए जो वाहन हैए जो व्यवस्था हैए वह तो चेले को चादर ओढ़ने पर मिल सकती हैएनहीं मिलती है तो चेला अदालत में जाता है। ण्ण्ण् पर श्विवेकश्ए तो ब्रह्मनिष्ठ गुरु शिष्य को ही सौंपते हैं। यही रहस्य है।
अगला हक़ बेटे का होता है।
उपनिषद की आज्ञा हैए ण्ण्ण् तब छापाखाना नहीं था। प्रवचन नहीं थे। जिज्ञासु.ऋषि के पास अपनी जिज्ञासा लेकर जाता थाए ऋषि को अभिमान नहीं थाए नहीं पता होताए तो अन्य के पास भेज देतेए वे बड़े ऋषि हैंए ज्ञान का अगाध भंडार अहर्निश वहाँ संचारित होता था।
ण्ण्ण् ऋषि पिता थेए ण्ण्ण् सन्यासी नहीं। आश्रम व्यवस्था के चतुर्थ आयाम पर रहते थे। ण्ण्ण् पुत्र को भी इसी मार्ग पर आना है। आश्रम व्यवस्था के पहले मोड़ पर जिज्ञासा का बीजारोपण हुआ थाए ण्ण्ण् गृहस्थ में सांसांरिक जीवन जीयाए ण्ण्ण् जिज्ञासा दब गईए वानप्रस्थ में फिर बीज हरा हुआए ण्ण्ण् अनुकूल वातावरण मिला हैए ण्ण्ण् अब जिज्ञासुए ण्ण्ण् जिज्ञासा को शांत करेगाए ण्ण्ण्
ण्ण्ण् उसे भी सिद्ध मार्ग पर आना है।
यह सिद्धों का मार्ग है। यही सहज योग है।
शास्त्र कहता हैए यह रहस्य हैए गोपन विद्या हैए विवेक की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य हैए ण्ण्ण् जीवन इस ओर गति लेए ण्ण्ण् गतिशील रहेए ण्ण्ण् यही सारतत्व हैे ।
नरेन्द्र नाथ